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= વાગ્યા હી ગોર વહ सुन्दरता में वृद्धि करती है। लुणवसही - इतिहास व दर्शन :
देलवाडा का यह मन्दिर कला जगत का प्राण है। मन्दिर में इतनी सूक्ष्म कला प्रदर्शित की गई है कि यात्री का ध्यान वरवस उस ओर खिंच जाता है। यह विमलावसही की तरह समानता लिए हुए था। इस कलात्मक मन्दिर का निर्माण वास्तुपाल तेजपाल व उनकी पत्नियों ने कराया था। उनके पुत्र का नाम लावण्य सिंह था। इसी का अपभ्रंश लुणवसही हो गया। यह मन्दिर २२वें तीर्थकर भगवान अरिष्टनेमि को समर्पित है। उनकी श्यामवर्णीय प्रतिमा कसौटी के पत्थर से निर्मित की गई है। इस मन्दिर की प्रतिष्टा संवत् १२.७ चैत्र कृष्णा तृतीय को आचार्य श्री विजय सैन सूरी जी ने अपने कर कमलों से की थी। इस मंदिर पर १३ करोड़ रवर्ण मुद्राएं खर्च हुई थी। दोनों भाई जैन धर्म के परम श्रावक व धर्म के प्रति समर्पित थे। इस मन्दिर के शिल्पी थे सोमन देव। सोमन देव अपने समय के प्रसिद्ध शिल्पी थे। इस मन्दिर को अलाउदीन खिलजी ने क्षतिग्रस्त किया था। ये वात संवत् १३६८ की है जब अलाउदीन खिलजी के सैन्य दल ने मन्दिर के गर्भ गृह व अन्य भागों को क्षतिग्रस्त किया था। सं १३७८ को सेट चण्ड सिंह ने इस मन्दिर का जीणोद्धार करवाया।
ये मन्दिर मानव जाति के लिए उपहार तुल्य है। इस मन्दिर के मुख्य द्वार में प्रवेश करते ही मन्दिर अपने भव्य कलात्मक रूप में प्रस्तुत होता है। यहां विश्व प्रसिद्ध देवरानी व जेठानी के गोखले (मन्दिर) हैं। इनका निर्माण दोनों भाईयों की धर्म पत्नियों ने अपने निज द्रव्य से करवाया था। वाई ओर के गोखले में प्रथम तीर्थकर भगवान ऋपभदेव विराजमान हैं। दाई ओर के गोखले में भगवान शान्ति नाथ
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