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-आस्था की ओर बढ़ते कदम __ आप की पत्नी आपके रास्ते की रूकावट नहीं बन सकी। आप शीघ्र ही माता पिता व अन्य स्वजनों की आज्ञा से आचार्य श्री रघुनाथ जी महाराज के शिष्य बन गए। आप की दीक्षा २५ वर्ष की आयु में वगड़ी में हुई। गंभीर शास्त्र अभ्यास किया। गुरू की कृपा, आप पर हमेशा रहती थी। गुरू को भी अपने शिष्य की बुद्धि व ज्ञान पर गर्व था।
उस समय साधु समाज में कुछ बातें ऐसी आ गई थी जो शास्त्रों के अनुकूल नहीं थी। गुरू शिष्य के मध्य इन विचारों में मतभेद हो गया। गुरू से कोई समझौता न हो पाया तो १३ साधुओं के साथ आप ने स्थानक छोड़ दिया। वह जोधपूर आये। एक दुकान में ठहरे। सौभाग्य से वहां १३ श्रावक वैठे समायिक कर रहे थे। वहां श्री फातेहचन्द जी दीवान गुजरे। साधु व श्रावकों को देखा। फिर कहा अच्छा संयोग बना है। तेरह साधु व तेरह श्रावकों के पास ही भोजक जाति का एक कवि गुजर रहा था उस ने एक दोहा रचा। इस दोहे में साधुओं को तेरहपंथी कहा गया था। आचार्य भिक्षु को यह दोहा पसंद आया। उन्होंने कहा सत्य है। "हे प्रभु ! यह तेरा पंथ है। तात्विक दृष्टि से उन्होंने वताया "जो ५ महाव्रत, ५ समिति, ३ गुप्ति का पालन करता है वह तेरहपंथी है।"
आचार्य श्री भिक्षु क्रांतिकारी आचार्य थे। उन्होंने कुछ सुधार अपने सम्प्रदाय में किए। वह महान तपस्वी थे। वह लोगों की जन भाषा राजस्थानी में धर्म प्रचार करते थे। सारा राजस्थान, मध्यप्रदेश उनका प्रचार क्षेत्र था। उन्हें राजस्थानी भाषा के सव से महान कवि होने का गौरव प्राप्त है। वह महान विचारक व कुशल आचार्य थे। उन्होंने अपनी परम्परा को स्थापित करने के लिए एक मर्यादा पत्र लिखा। जो इस संघ का विधान है।
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