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- आस्था की ओर बढ़ते कदम लिख लिया। मैंने एक नौकर लिया, उसको एक टार्च संभाली । हमारा कुछ सामान था जो पूजा के काम के लिए धा । फिर भोमिया जी महाराज के चरणों में विधि सहित प्रसाद अर्पण किया । भोनिआ के भक्त यहां मनुष्य ही नहीं पशु भी हैं । वहां यात्रियों के साथ कुत्ते स्वयं जाते हैं ।
वादिपों को रास्ता भटकने नहीं देते । इसलिये कुत्तों की खूब - सेर्गी होती है । उन्हें भोजन व दूध प्रदान किया जाता है ।
यह वात इस तीर्थ की विशेषता है कि यात्रा की तैयारी भौमिया जी के भजन कीर्तन से शुरु होती है । यहां हर समय अतिशय घटित होते रहते हैं ।
___हम रात्रि को सोने के लिये अपने कमरे में पहुंचे : यह विशाल कमरा था । हमें शाम के खाने की पर्ची दी गई क्योंकि यात्री अकसर ४ बजे शाम वापस आ जाते हैं। शाम को उतरते समय लुड्डू व नमकीन दिया जाता है । वहां एक चैस की दुकान खुली थी । सुबह चार बजे से पहले हम उटे, भोमिया जी को वन्दना कर हम चले । हाथ में पहली वार लाठी पकड़ी । लाठी का पहले तो हमें कोई लाभ महसूस नहीं हुआ पर आगे जव उतराई आई, तव छड़ी का महत्व पता चलता गया ।
हम सुबह ही दो लड़कों से मिले, जो आदिवासी थे । वह पेढी के सिपाही थे, दोनों तीरअंदाज तीर के पक्के निशानची थे । जंगली जानवरों से यात्रियों की रक्षा करने के लिये इस तरह की व्यवस्था श्री आनन्द जी कल्याण जी पेढी ने कर रखी है । यहां सब लोग प्रभु पार्श्वनाथ जी की जय-जयकार करते पर्वत पर चढ़ते हैं । बच्चे, बूढ़े, स्त्री, पुरुष नवयुवक सभी एक भावना से चलते हैं । मेरे धर्मभ्राता रवीन्द्र जैन को चाय की तलव थी । सो हम दोनों ने एक होटल में चाय पी, क्योंकि पहाड़ की चढ़ाई थकाने वाली
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