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स्था का पार ६
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मन्दिर जाना उन के जीवन का अंग है। साधु, साध्वीयों को सन्मान करता, उन्हें भोजन कराना और सेवा करना वह अपना धर्म समझती हैं। वह दान, शील, तप व भावना की साकार मूर्ति हैं। धर्म उनके अंग अंग में घटित होता है। जैन साधु साध्वीयों के प्रवचन सुननः व समायिक करना उनकी दैनिक चर्या है। वह स्पष्टवादी द सत्यवादी हैं। हर मेहमान का सन्मान करना, तो उन से सीखा जा सकता है। माता के संस्कार ही संतान को संस्कार प्रदान करते हैं। वह गरीव की मदद करना अपना धर्म समझतं. हैं।
मेरे माता पिता ने नरे पर परम उपकार है कि उन्होने वचपन मुझे कभी किसी वस्तु की कमी का एहसास नहीं होने दिया। उन्होनें मेरी शिक्षा दीक्षा का पूर्ण ध्यान रखा। मेरे पिता मेरा चरित्र व संस्कार के प्रति पूर्ण सजग थे। वह इस बात का ध्यान रखते थे कि मैं गलत संगत में न पड़ जाउं। मेरे माता-पिता का यह आर्शीवाद ही था कि मैं आज इस रूप में समाज के सामने हूं!
मेरा वचपन साधारप वच्चों की तरह था। मेरे माता पिता की इच्छा थी कि मैं पड़ लिख कर कुछ वन सकूँ। इस दृष्टि से मुझे अच्छे स्कूल में दाखिल करवाया गया। पर मुझे स्कूल के नजदीक रखा जाता, जो मेरे घर के करीब होता। मेरे माता पिता के अतिरिक्त, मेरे अध्यापक भी परम कृपालु थे। मेरी श्रद्धा का केन्द्र थे। यह अध्यापक बच्चे को अपने पुत्र की भांति शिक्षित करते थे। वह जमाना ही ऐसा था जब प्राईवेट स्कूलों में अध्यापक अपने विद्यार्थीयों पर पूरा ध्यान देते थे। बच्चों का परिणाम अच्छा हो इस लिए अतिरिक्त समय भी लगाते थे। तनख्वाह कम होती थी। पर स्कूल का परिणाम आर्दश होता था। वातावरण पूर्णतयः धर्निक होता था। मुझे एस. डी. स्कूल व आर्य स्कूल में पढ़ने
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