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= રામ્યા હી વોર અને ભ हिन्दी भाषा को चुनना पड़ा। इस का कारण हिन्दी का । अन्तराष्ट्रीय होना भी है। दूसरा कारण अधिकांश मुनियों व . श्रावकों का पंजावी भाषा से अपिरचित होना भी है। इसी कमी को दूर करने के लिए हमारे द्वारा हिन्दी भाषा में साहित्य की रचना की गई। जिस का उल्लेख आगे किया जाएगा। १. श्रमणोपासक पुरूषोत्तम :
इस पुस्तक की रचना मेरे धर्म भ्राता रविन्दं जैन ने की हट जो मेरे कर कार्य में सहायक रहा है। प्रस्तुत पुरतक का वर्णन पीछे राष्ट्रपति भवन के समारोह उल्लेख में किया गया है। यह पुस्तक मेरे शिष्य धर्म भ्राता रविन्द्र जैन ने मेरे ४०वे जन्म दिन पर हिन्दी में लिखी थी। मैं स्वयं को इस योग्य नही समझता, जिस तरह से उस ने मुझे प्रस्तुत किया है। मेरा शिष्य ३१ मार्च १६६६ से मेरे को समर्पित जीवन जी रहा है। वह मुझे अपना गुरू मानता है। यह पुरतक काफी महत्वपूर्ण है। इस के शुरू में जैन श्रावक जीवन का वर्णन है, श्रावक के १२ व्रतों का वर्णन है। श्रावक कैसा होना चाहिए, इस का वर्णन किया गया है। दूसरे भाग में प्रसिद्ध जैन इतिहास के श्रावक-श्राविका के जीवन चारित्र का वर्णन किया गया है। तीसरे भाग में मेरी प्रशंसा जरूरत से ज्यादा की गई है। पर यह पुस्तक श्रद्धा समर्पण की गाथा है। विनयवान शिष्य का स्वरूप कैसा होता है ? कैसे ज्ञान पाकर, ज्ञानी अहं से दूर रहता है ? इस. पुस्तक को पढ़ने से . हमारे रिश्तों का आत्मिक आभास होता है। यह रिश्ता किसी पूर्व भव के कर्म के कारण घटित हुआ है। मेरा शिष्य ने स्वार्थ रहित जीवन जीया है। यह पुस्तक मूझे भेंट करने के लिए उस ने भारत के राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह जी को चुना। मेरे जीवन का यह अभूतपूर्व दिवस था, जब भारत के
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