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मन्त्रराजरहस्यम् । छम्मुह पयाल किन्नर गरुडो गंधच तह य जखिदो। कुवर वरुणो भिउडी गोमेहो पास-मायंगा ॥ ८॥ . देवीओ चक्केसरि-अजिआ-दुरिआरि-कालि-महकाली। अचुय-संता-जाला मुतारया सोय-सिदिच्छा ॥९॥ चंडा विजयंकुसि-पनदत्ति-निव्याणि-अच्चुआ-धरणी। वहरुट्ट-छुत्त-गंधारि-अंव-पउमावई सिद्धा ॥ १० ॥ इय तित्थरक्खणरया अन्ने वि मुरा सुरीउ चउहा वि । वंतर-जोइणिपमुहा कुणंतु रक्खं सया अम्हं ।। ११ ।। एवं सुदिद्विसुरगणसहिओ संघस्स संतिनिणचंदो । मज्झ वि करेउ रक्सं मुणिसुंदरमूरि थुअ-महिमा ।। १२ ॥ इअ संतिनाइसम्महिटियरपसं सरइ तिकालं जो । सबोबद्दवरहिओ स लहड मुहसंपयं परमं ॥१३॥ [तवगच्छगयणदिणयरजुगवरसिरिसोमसुंदरगुरुणं । मुपसायलद्धगगहरविज्जासिद्धी भणइ सीसो ॥ १४ ॥]
११. परिशिष्टम् । श्रीमुनिसुन्दरसूरिरचितं श्रीगौतमगणधरस्तोत्रम् । सूरिमन्त्राधिष्ठायकस्तवायी।
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जयसिरिबिलासभवणं वीरजिणंदस्स पहमसीसाई। सपलगुणलद्धिजलहिसिरिगोयमगणहरं वंदे ॥१॥
सह 'नमो भगवओ' जगगुरुगो 'गोयमस्स सिद्धस्स। युद्धस्स पारगस्स अरसीपमहागसस्स' सपा ॥२॥ 'अवतर अरतर भगवन् ! मम हृदये भास्करीश्रियम् । विहि ही* श्री ज्ञानाटि वितरतु तुभ्यं नमः स्वाहा ॥३॥