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सद्धर्मसंरक्षक "गुरुदेव ! एक सन्देह का आपश्री से समाधान चाहता हूँ । आज्ञा हो तो अर्ज करूं?"
आपश्री ने मुस्कराते हुए सहज भाव से फरमाया - "भाई ! तुम निःसंकोच होकर पूछ सकते हो।"
संघपति - "आपश्री के वेष तथा आचार से तो ऐसा ज्ञात होता है कि आप बाइसटोले (स्थानकमार्गी) साधुओं जैसे हैं, किन्तु आपके हाथ में मुँहपत्ती को तथा श्रीजिनमूर्ति एवं तीर्थ की भक्ति को देखकर तो ऐसा प्रतीत होता है कि आपश्री शुद्ध सनातन जैन श्वेताम्बर धर्म के अनुयायी हैं, एवं आपकी क्रियाएं कुछ खरतरगच्छ से मिलती-जुलती हैं। इसका क्या कारण है?"
मुनि बूटेरायजी - "शेठ साहब ! हम लोग पंजाब से आ रहे हैं, वहीं पर हमारा जन्म हुआ है। जन्म से मैं अजैन हूँ। मेरा सांसारिक परिवार सारा ही जैनेतर है। पंजाब में ही मैंने बाइसटोले (स्थानकमार्गी) साधुओं से दीक्षा ली और उसी संप्रदाय का साधु बना । जैन आगमों का अभ्यास करने से मुझे उन का मत आगमानुकूल सच्चा प्रतीत नहीं हुआ । श्रीजिनप्रतिमा को मानने तथा मुखपत्ती को मुख पर न बाँधने के आगम के प्रमाणों को पढ कर उस संप्रदाय से मेरी श्रद्धा हट गई। मैंने मँहपत्ती का डोरा तोड दिया और उसे हाथ में लेकर मुख के सामने रखकर बोलने लग गया हूँ। तभी से मैं और मेरे शिष्य जिनप्रतिमा को मानने लगे हैं। सारे पंजाब में तथा राजस्थान में आज तक हमने किसी ऐसे साधु को नहीं देखा जो बाइसटोले और यतियों से अलग जैनागमानुकूल वेषधारी और शुद्ध सामाचारी को पालनेवाला हो । स्थानकमार्गी
Shrenik/DIA-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013) 1(1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5
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