________________
उत्कट विरोध का डटकर मुकाबिला विरुद्ध क्यों मानते हो? इसलिये तुमको ऐसा करना उचित नहीं है। ऐसा करने से गुरु की आज्ञा का उल्लंघन तथा मृषावाद का दोष लगता है। इससे तुम निह्नव और मृषावादी होने से पतित साधु माने जाओगे। मात्र इतना ही नहीं, तुम मिथ्यादृष्टि गृहस्थ की कोटि में आ जाओंगे।"
तब आपने कहा - "मुझे नागरमल्लजी ने यह सिखलाया है कि
"अरिहंतो मह देवो, जावज्जीवं सुसाहुणो गुरुणो, जिण-पण्णत्तं तत्तं, इअ सम्मत्तं मे गहियं ॥"
अर्थात् सुदेव अरिहंत, सुसाधु गुरु तथा जिनेश्वर प्रभु द्वारा प्ररूपित धर्म (सुधर्म) को जीवनपर्यन्त मैंने ग्रहण किया है।
ये तीन तत्त्व ग्रहण करने के लिये मुझे भी नागरमल्लजी ने सिखलाया है। सो उनको मैं मानता हूं। ये मुझे स्वीकार हैं। इसमें सूत्रों तथा गुरु की आज्ञा को मानना दोनों ही आ जाते हैं और जो इन लक्षणों के विरुद्ध हैं वे कुदेव, कुगुरु और कुधर्म मुझे मान्य नहीं हैं।"
यह सुनकर गंगाराम झंझला उठा और बडे जोश में आकर वहां उपस्थित भाइयों को ललकार कर कहने लगा “भाइयो ! यदि यह बूटेराय मुँहपत्ती बाँध ले तो ठीक है, नहीं तो इसका साधुवेष उतार लो और मार-पीटकर धक्के देकर यहां से इसे निकाल भगाओ।" इस प्रकार आंखें लाल करके अण्ट-शण्ट बकने लगा।
तब उनमें से एक भाई जिसका नाम 'बनातीराम' था, वह वहाँ उपस्थित साधु-साध्वीयों तथा भाइयों से संबोधित करता हुआ कहने लगा कि "क्या तुम लोग चर्चा करने आये हो अथवा दंगा
Shrenik/DIA-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013)/(1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5
[75]