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आगमानुकूल चारित्र पालने की धून
२३ दोनों श्रद्धाएं छुडवा देनी हैं। यदि यह अपना हठ नहीं छोडेगा तो मैं उसका वेष उतरवा लूंगा।" इस प्रकार उसने आपके विरुद्ध जोरशोर से सर्वत्र प्रचार शुरू कर दिया । खूब बैंचातान बढ गई।
इस विषय में आपने स्वलिखित मुखपत्तीचर्चा नामक पुस्तक में वर्णन किया है कि - "वह (अमरसिंह) मेरी सर्वत्र निन्दा करने लगा, ऐसा मैने अनेक लोगों के मुख से सुना है (जिन के पास उसने मेरी निन्दा की है)। परन्तु वह मेरे से दीक्षा में छोटा है और टोले की अपेक्षा से वह मुझे कई बार मिलता भी रहता है, मेरे साथ विचरता भी है, चर्चा-वार्ता भी होती रहती है। परन्तु मैंने उसे कभी भी अविनय का वचन बोला नहीं और न ही कभी उसने मुझसे अविनय का शब्द बोला है। अपनी-अपनी दृष्टि अनुसार सब जीवों की श्रद्धा होती है। साधारण बात भी रागद्वेष वश बढ़ा-चढाकर की जा सकती है। एक-दूसरे के पास जाने से बात का बतंगड भी बन जाना संभव है। ऐसा जानकर जो बात दूसरे के मुँह से जानी जावे, वह सच्ची ही है, ऐसा एकान्त मान लेना उचित नहीं है। यदि कोई राग-द्वेष से रहित होकर सच्चा पुरुष कहे, तभी उसकी बात को सच्ची माननी चाहिये । नहीं तो केवली महाराज जाने । इस काल में बहुत लोग एक-दूसरे को भडकाने और भिडाने के लिए उल्टी-सीधी बहुत बातें करते हैं। लोगों की बातें सुनकर ज्ञानी जीव को किसी के साथ राग-द्वेष करना उचित नहीं है। यदि कोई प्रत्यक्ष में अवर्णवाद बोले, तो भी वीतराग की आज्ञा ऐसी है कि उस समय भी समता भाव रखा जावे । सर्व जीवों के हित की वांछा करे । कर्मों के वशीभूत होकर जीव क्या-क्या कर्म नहीं करता? अपितु आवेशपूर्ण जीव को उचित-अनुचित का विवेक नहीं रहता। जब
Shrenik/DIA-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013)/(1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5
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