________________
पूज्य आत्मारामजी के साथ कुलगुरु शांतिसागर का शास्त्रार्थ
१८५
शीघ्र ही तीर्थराजश्री सिद्धाचलजी की यात्रा करने की है । सिद्धाचलजी की यात्रा करने के बाद फिर हमारा इधर आने का भाव है। जनता ने आपनी को अधिक दिन तक यहाँ ठहरने की विनती की। श्रीसंघ की विनती को मान देते हुए आपश्री ने कुछ दिन और यहाँ स्थिरता की स्वीकृति दी। पूज्य आत्मारामजी जिन दिनों यहाँ पधारे उन दिनों यहाँ का धार्मिक वातावरण भी कुछ विक्षुब्ध सा हो रहा था । कई एक कुलगुरुओं ने उत्सूत्र प्ररूपणा से धर्म के विशुद्ध स्वरूप को विकृत कर दिया था । बहुतसी अबोध जनता इनके चंगुल में बुरी तरह से फंसी हुई थी। रविसागर शिष्य श्रीशांतिसागरजी इन सब में शिरोमणि थे ।
मुनिश्री आत्मारामजी की क्रांतिप्रधान धर्मघोषणा ने जहाँ अहमदाबाद की अबोध जैन जनता के अन्धकारपूर्ण हृदयों में प्रकाश की किरणें डालकर उन्हें सन्मार्ग का ज्ञान कराया; वहाँ श्री शांतिसागर जैसे उत्सूत्रप्ररूपक के हृदय में भी एक प्रकार की हलचल पैदा कर दी। उसने आपके प्रवचन से प्रभावित हुए अपनें भक्तों को जब विमुख होते देखा तो श्रीआत्मारामजी से शास्त्रार्थ करने का प्रस्ताव किया।
पूज्य आत्मारामजी के साथ कुलगुरु शांतिसागर का शास्त्रार्थं
I
अहमदाबाद में शांतिसागर ने स्वतंत्र आध्यात्मी मत चलाया था। उसमें त्याग और तपस्या को स्थान ही न था । खाते-पीते मोक्ष मिले ऐसी इस मत की प्ररूपणा थी । आत्मा को कष्ट नहीं देना, भूखे नहीं रहना, आत्मा को दुःखी होने नहीं देना । खाना-पीना तो व्यवहार है, यह शरीर का धर्म है। शरीर कुकर्म करे तो शरीर ही
Shrenik/D/A-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013) / (1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5
[185]