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________________ कुछ प्रश्नोत्तर १७७ (आ) हम पंजाब से आये हैं । वहाँ हम लोग साधु के नियमों का दृढता और कठोरतापूर्वक पालन करते आये हैं । गुजरात और सौराष्ट्र में विचरनेवाले साधु के आचार-व्यवहार से हमारा कई बातों से मेल नहीं खाता । एक जगह पर स्थिरवास और शिथिलाचार हमें उचित नहीं जचा। इसी लिये संवेगी दीक्षा लेने के बाद अपने शिष्य परिवार के साथ हम लोग अलग रहे हैं, ताकि यह शिथिलता हमारी शिष्य-परम्परा में भी न पैठ जावे । (इ) अहमदाबाद में सेठ हठीभाई की वाडी में डेलावाले रतनविजय द्वारा एक बाई की दीक्षा के समय साधुओं की रुपयों से पूजा के समय हमने ऐसे शिथिलाचारियों का जो विरोध किया है वह उचित ही है । शिथिलाचार - भ्रष्टाचार के ये सब उदाहरण तुम लोगों ने प्रत्यक्ष देख ही लिये हैं । अतः हमारे शिष्य - परिवार में किसी भी प्रकार का शिथिलाचार - भ्रष्टाचार न आने पावे और जो पूर्वाचार्यों-गीतार्थों द्वारा प्रतिपादित साधुसामाचारी के अनुकूल न हो, उसके लिये हम लोगों को सदा सतर्क रहना है। (ई) मैं पहले कह चुका हूँ कि मेरा महोपाध्याय यशोविजयजी प्रति अनुराग ढा। इनकी सामाचारी देखकर इनके प्रति मेरा मन आकर्षित हुआ । परन्तु इस समय में मुझे उनकी कोटि का कोई योग्य गुरु दृष्टिगत न हुआ कि जिससे मैं संवेगी दीक्षा ग्रहण करता । यह सोचकर कि लोकव्यवहार से तो अवश्य गुरु धारण करना ही चाहिये । इसलिये उपाध्यायजी की सामाचारी के अनुयायी को लोकव्यवहार से गुरु धारण कर तपागच्छ की सामाचारी ग्रहण की है। (3) राजनगर ( अहमदाबाद) में रूपविजय के डेले में सौभाग्यविजयजी से वासक्षेप लेकर मणिविजयजी के नाम की Shrenik/D/A-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013) / (1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5 [177]
SR No.009969
Book TitleSaddharma sanrakshaka Muni Buddhivijayji Buteraiji Maharaj ka Jivan Vruttant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherBhadrankaroday Shikshan Trust
Publication Year2013
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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