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कुछ प्रश्नोत्तर
१७५ करें । यह सम्यक्त्व का लक्षण है। तथा ऐसी आम्नाय माननेवाले आचार्यों, उपाध्यायों, साधुओं की निश्रा में रहकर मोक्षमार्ग का आचरण कर आत्मकल्याण करें । नाम का झगडा नहीं, उस गच्छ का नाम चाहे कुछ भी हो।
(६) गुरूजी ! आपने तपागच्छ स्वीकार किया है, उसका हेतु क्या है?
मूला ! (अ) हम लोग लुकामतियों में से आये हैं। वह मत आगमों के अनुकूल न होने से हमने उसका त्याग किया है। पंजाब में संवेगी साधु न होने से हमें शुद्ध गुरु-परम्परा का कोई परिचय नहीं था। तब तक तो हम यही समझते थे कि वीतराग केवली प्ररूपित धर्म को माननेवाले साधु-संत आजकल नहीं है। परन्तु प्रभु महावीर ने अपने शासन को इक्कीस हजार वर्षों तक विद्यमान रहने का फरमाया है - ऐसा आगमों में वर्णन है। इसलिये मेरे मन में यह भी संकल्प उठता रहता था कि कहीं न कहीं शुद्धमार्ग का आचरण करनेवाले साधु-संत अवश्य होने चाहियें।
(आ) भावनगर में आकर मैंने महोपाध्याय यशोविजयजी, योगीराज आनन्दघनजी, उपाध्याय देवचन्द्रजी, हरिभद्रसूरिजी, सिद्धसेन दिवाकरजी आदि अनेक संवेगी मुनिराजों के ग्रंथों को पढने तथा मनन करने का अवसर प्राप्त किया । मेरी श्रद्धा तो उपाध्यायश्री यशोविजयजी के साथ बहुत मिलती है । उपाध्यायजी नाममात्र से तपागच्छ के कहलाये । पर वे गच्छों के झमेलों से बहुत ऊँचे थे। आपके ग्रंथों ने मेरे मन पर गहरी छाप डाली। इस पर से मेरा विचार तपागच्छ में दीक्षा लेने का हुआ ।
Shrenik/DIA-SHILCHANDRASURI/ Hindi Book (07-10-2013)/(1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5
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