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मनोव्यथा
१६५ त्रस जीवों का घात करते हैं और कहते हैं कि हम तो धर्म का उपदेश देते हैं, बहुत जीव सुनकर धर्म को पाते हैं, दृढ भी होते हैं। इससे धर्म का बहुत उद्योत होता है। दीपकादि जलाकर शास्त्र के पढने से ज्ञान की वृद्धि होती है। नींद नहीं आने से प्रमाद छूटता है।
गृहस्थों से रुपयों, सोनामोहरों आदि से अपनी नवांगी पूजा करवाकर इसमें धर्म की प्रभावना है ऐसी प्ररूपणा करते हैं।
तो क्या ? आज जो कुछ यह हो रहा है वह वीतराग केवली भगवन्तों की आज्ञा के अनुकूल है या प्रतिकूल है ? वीतराग की आज्ञा लोपने में धर्म है अथवा पालने में ? विचारवान विवेकी पुरुषों को इस बात पर विचार करना चाहिये कि क्या ऐसे लोग साधु के वेष में श्रीतीर्थंकर भगवन्तों की आज्ञा का लोप कर अपनी आत्मा को डुबाते नहीं हैं ? अवश्य डुबाते हैं। ___ इस प्रकार साधु के वेष में अनेक प्रकार की धींगामस्ती मचा रखी है। ऐसा पाखंड चलानेवालों को मुग्ध-लोग (भोले लोग) में चन्दनबाला तथा चेली मृगावती का प्रसंग आता है कि प्रभु महावीर के जिस समवसरण में सूर्य तथा चन्द्र अपने मूल विमान से आये थे। उसमें चन्दनबाला अपनी शिष्या के साथ प्रभु की देशना सुनने आयी थी। रात्री होने से चन्दनबाला वहा से अपने निवासस्थान पर वापिस चली आयी, परन्तु शिष्या को ध्यान नहीं रहा। जब वह देरी से अपनी गुरुणी के पास पहुंची तो उसने कहा कि तुमको दिन अस्त होने से पहले आ जाना चाहिये था । ऐसा करके तुमने वीतराग की आज्ञा का उल्लंघन किया है।
इस प्रसंग से स्पष्ट है कि साध्वी को अथवा गृहस्थ नारी को रात्री के समय साधु के वहाँ नहीं जाना चाहिये, न ही साधु और पुरुष को साध्वी के वहाँ आना-जाना चाहिए । तीर्थंकर महावीर तो वीतराग केवली थे, काम-विकार-राग-द्वेष से सर्वथा निर्विकार हो चुके थे। जब वहाँ जाने का आगम में निषेध है, तो सामान्य साधुसाध्वी के वहाँ आना-जाना कहां तक उचित हैं ?
Shrenik/DIA-SHILCHANDRASURI/ Hindi Book (07-10-2013)/(1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5
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