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सद्धर्मसंरक्षक वे यह भी कहते हैं कि लुंकामती साधु-साध्वीयाँ ऐसा नहीं करते हैं । परन्तु खेद का विषय है कि गुजरात, सौराष्ट्र, कच्छ में मंदिरमार्गी भाई भी बेसमझी से अपने आपको देहरावासी कहने में गौरव मानते हैं।" मनोव्यथा
श्रीवीतराग तीर्थंकर भगवन्तों ने कहा है कि स्वच्छंदी, मतकदाग्रही जीव पंचमकाल में बहुत होंगे। पर आत्मार्थी को चाहिये कि वह आगम के सही विचारों को समझे और उनके अनुकूल आचरण करे । असंयति अच्छेरे के प्रभाव से कई प्रकार के मतमतांतर चल रहे हैं । इन मत-मतांतरों के कारण जैनधर्म छलनीप्रायः हो रहा है । युगप्रधान के बिना सर्वत्र शुद्धमार्ग कैसे प्रसार पा सकता है ? फिर भी मुमुक्षु भव्यजीवों को आगमों को देखकर सरल परिणामों तथा निष्पक्ष वीतराग भाव से जहाँ तक अपनी दृष्टि पहुंचे वहाँ तक तो सम्यक्त्व आदि की शुद्धि से अपनी भूलो का संशोधन कर शुद्धमार्ग को अपनाना चाहिये । आत्मपतन-कारक गडरिया-प्रवाह में तो नहीं पडना चाहिये। आज तक तो असंयतियों (यतियों तथा शिथिलाचारी साधुओं) का अच्छेरा वरत रहा है। कोई विरला भवभीरू खोजी मानव ही वीतराग केवली के कथन की वास्तविक सच्चाई को समझ कर और उसे लक्ष्य में रखकर झूठसच का निर्णय करके सत्यमार्ग को अपने आचरण में लावेगा। कहा भी है कि "जिन खोजा तिन पाइया तत्त्व तणो विचार" । मतवाले तो अपने-अपने मत (संप्रदाय) में मतवाले हो रहे हैं। ऐसे लोगों को तत्त्वविचार कैसे आये ? तत्त्व के शुद्ध स्वरूप की गवेषणा के बिना कदापि तत्त्व का विचार नहीं आ सकता ।
Shrenik/DIA-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013) 1(1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5
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