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सद्धर्मसंरक्षक
वि० सं० १०८४ में पाटण में जिनेश्वरसूरि तथा बुद्धिसागरसूरि ने राजा दुर्लभदेव की सभा में चैत्यवासियों से विवाद करके विजय प्राप्त की। तब से पाटण में वसतीवासी संवेगी साधुओं का आनाजाना चालू हुआ । जिनवल्लभसूरि ने राजस्थान में चैत्यवास के विरोध में जोरदार आन्दोलन किया । इस प्रकार चैत्यवास के विरोध का आन्दोलन विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दी तक चालू रहा और धीरे-धीरे चैत्यवासियों का जोर टूटने लगा ।
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पर काल की गति विचित्र है कि जिन आचार्यों ने चैत्यवास को तोडने के लिये कमर कसी थी उन्हीं के वंशज फिर शिथिलाचारी बनने लगे । वे लोग पंजाब में 'पूजजी', राजस्थान में 'गुराँसा', तथा सौराष्ट्र और गुजरात में 'गोरजी' के नाम से प्रसिद्ध हुए। ये लोग चैत्य (जिनमन्दिरों) में वास न करके मन्दिरों के बाजू में बने हुए उपाश्रयों में निवास करके उन्हें मठ बनाकर मठवासी बन गये हैं । इनके आचार्य श्रीपूज्य कहलाते हैं ।
आजकल के वसतीवासी (संवेगी) साधु भी अपने अपने उपाश्रयों को गृहस्थों द्वारा निर्माण करवाकर प्रायः उन्हीं में उतरते हैं । उनके उपाश्रयों में दूसरे संघाडे के साधुओं को ठहरने नहीं दिया जाता ।
यह भी उन मठों का रूपांतर है और एक प्रकार का परिग्रह है । क्योंकि उनके पूर्वगुरुओं ने ऐसा करने की अनुज्ञा दी ही नहीं है । अपने निमित्त उपाश्रय, ज्ञानमन्दिर, धर्मशालाएँ बनवाना और उनमें निवास करना तथा ठहरना आधाकर्मी दोष से प्रत्यक्षदूषित हैं ।
१. आजकल जो चैत्यवासी घरबारी बनकर बाल-बच्चोंवाले बनते जा रहे हैं, वे लोग अपने आपको ‘महात्मा' के नाम से प्रचार करके कुलगुरु बनने का ढोंग रचा रहे हैं।
Shrenik/D/A-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013)/(1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5
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