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सद्धर्मसंरक्षक को बर्दाश्त करके मोक्षसुख को प्राप्त किया है । अतः इनका अनुकरण आधुनिक साधु-समुदाय को अवश्य करना चाहिये । इस पुस्तक में दिये गये चरित्रों के अनुकरण करने से भी स्व-हित के साथ-साथ पर-हित भी बहुत हो सकेगा । सर्वत्र सर्वदा ज्ञानचारित्र-सम्पन्न संवेगी मुनिराजों के विहार न होने के परिणाम स्वरूप जिनमंदिरों आदि धर्मस्थानों में अनेक उपासकों की पुनः कमी होने लगी है अतः समय रहते चेतना परमावश्यक है।
पूज्य बूटेरायजी महाराज का शिष्य-समुदाय 'पंजाबीसंघाडा' कहलाता था । इसमें त्यागी, वैरागी, संयमी, तपस्वी, योगी, आध्यात्मी साधुओं की उत्तरोत्तर वृद्धि होती गई। इस पंजाबी त्रिपुटी ने इन साधुओं को बंगाल, सौराष्ट्र, गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान, मध्यप्रदेश आदि क्षेत्रों में सर्वत्र जिनशासन की प्रभावना के लिए भेजा। वे लुंकापंथी, स्थानकमार्गी और यति-श्रीपूज्यों के बल के लिये खूब जाग्रत थे। सत्यधर्म-उपदेशक मुनियों ने उनके प्रभाव को तोडा और बहुतों को जिनप्रतिमा द्वारा तीर्थंकरदेवों की भक्ति के प्रति श्रद्धालु बनाया । नये मंदिरों का निर्माण करवाकर जिनेश्वर प्रभु की भक्ति के लिये भव्य जीवों को प्रोत्साहित किया।
वि० सं० १९२३ (गुजराती सं० १९२२) (ई० स० १८६६)को मुनिश्री मूलचन्दजी और मुनिश्री वृद्धिचन्दजी अहमदाबाद पधारे । इन दिनों पूज्य गुरुदेव बूटेरायजी पंजाब में विचर रहे थे। तब दादा मणिविजयजी तथा मुनि मूलचन्दजी ने पंन्यास दयाविमलजी के पास श्रीभगवतीसूत्र का योगवहन किया । उस समय सकल श्रीसंघ के समक्ष पंन्यास दयाविमलजी ने मुनि मणिविजयजी और मुनि मूलचन्दजी को मिति जेठ सुदि १३ को गणिपद का वासक्षेप
Shrenik/DIA-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013) 1(1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5
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