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यतियों और श्रीपूज्यों का जोर
अब विशेष रूप से श्रावक-श्राविकायें शुद्ध आचारवाले संवेगी साधुओं के अनुरागी बनने लगे । यतियों और श्रीपूज्यों को पंजाबी त्रिपुटी की यह महत्ता सहन न हुई । इन मुनियों ने श्रीपूज्यों के आगत-स्वागतों में जाना भी बन्द कर दिया, वन्दनासत्कार भी बन्द कर दिया, श्रीपूज्यों की कृपा पर अवलंबित रहना भी बन्द कर दिया और इनके द्वारा पदवी पाना भी बन्द कर दिया । इस प्रकार साधुओं पर से यतियों और श्रीपूज्यों की सत्ता समाप्त हो गई। इन लोगों ने अपनी सत्ता को बनाये रखने के लिये मुनि मूलचन्दजी को कहला भेजा कि "आप लोग यहाँ श्रीपूज्य के पास आओ और कम से कम इनकी स्थापना पर एक रूमाल ही चढा जाओ।" मुनि मूलचन्दजी महाराज ने स्पष्ट रूप से कहला दिया कि "हम साधुओं के पास ऐसे रूमाल नहीं हैं। यदि हों तो भी ओढावेंगे नहीं।" आप लोगों के प्रयासों से सारे सौराष्ट्र और गुजरात से यतियों और श्रीपूज्यों की सत्ता धीरे-धीरे एकदम उठ गयी।
दूसरी तरफ गुरुजी के आदेश के अनुसार मुनिश्री मूलचन्दजी महाराज दिन-प्रतिदिन संवेगी मुनियों की दीक्षाएं देकर त्यागी चारित्रवान मुनियों की संख्या में वृद्धि करने लगे । इस प्रकार बूटेरायजी महाराज का परिवार विशेष वृद्धि पाया। इन मुनिराजों के सर्वत्र सतत विहार से यतियों-श्रीपूज्यों का जोर तो कम हुआ ही, साथ ही श्रावक-श्राविकायें संवेगी साधुओं के अनुरागी भी बनने लगे। ऐसा होने से संवेगी मुनिराजों का विहार सुगम हो गया । गुजरात और सौराष्ट्र में तो सब प्रकार से परिस्थिति सुधरी । मुनियों के विहार की तत्परता के कारण लुंकामती स्थानकमार्गीयों का प्रभाव भी कम होने लगा। इस प्रकार शद्ध जिनमार्ग का संरक्षण होकर
Shrenik/DIA-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013)/(1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5
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