________________
यतियों और श्रीपूज्यों का जोर
१३५ रोक लगा देते थे । कारण यह था कि साधुवेष में श्रीपूज्य गच्छाधिपति बन कर अयोग्य मार्ग में चलते थे। संघ में उन्हें कोई रोकनेवाला भी नहीं था। जैन शास्त्रों में आचार्य के लक्षण जो कहे हैं उनके एकदम प्रतिकूल अनेक प्रकार के आरंभ-समारंभ करनेवालों को, पालकी आदि सवारी में बैठनेवालों को, द्रव्यादि संग्रह करनेवालों को, सचित्त आहार-पानी सेवन करनेवालों को आचार्य मानना; उन को घर में बुलाकर पधरामणी करना, द्रव्यादि भेट करना, केसर-कुंकुम आदि से चरण-पूजा करके सोने की मोहरों और गिन्नियों से नवांगी पूजा करना और वे मोहरें आदि उनको दे देना; शिथिलाचारी होने पर भी स्त्रियों को बेरोक-टोक उनके पास जाने देना; धागा-डोरा आदि लेकर वांछित-प्राप्ति की निष्फल आशा करना; इन सब मूर्खताभरी मान्यताओं से पतन के मार्ग को प्रोत्साहन मिलता था । इससे लुंकामतियों को शुद्ध चारित्रवान संवेगी मुनिराजों की भी निन्दा करते हुए अपने पंथ के प्रचार में प्रोत्साहन मिलने लगा था।
पूर्वकाल में कोई-कोई यति-श्रीपूज्य परिग्रह की मूर्छावाले होने पर भी वे जैनधर्म के अनुरागी थे, सच्चरित्र तथा त्यागी थे, स्त्रीसंसर्ग से अलग रहते थे, धर्मकार्यों में शूरवीर थे, राजाओंमहाराजाओं को भी प्रतिबोध करने में समर्थ थे, धर्म की उन्नति करनेवाले थे; अपनी भूलों को स्वयं समझकर उन्हें सुधारते थे; शुद्धधर्म में चलनेवाले साधु-त्यागियों की प्रशंसा करनेवाले थे; शुद्ध मार्ग के इच्छुक थे, विद्या-व्यसनी थे और इस की प्राप्ति के लिये सदा प्रयत्नशील भी रहते थे; वाद-विवाद में विजय प्राप्त करते थे, खोटे आडम्बर और दंभ से दूर रहते थे । जहाँ मुनिराजों का
Shrenik/DIA-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013)/(1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5
[135]