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योग्य गुरु की खोज के लिये मनोमंथन
१०३ नाम का झगडा नहीं; उस गच्छ का नाम चाहे कुछ भी हो । उपाध्याय यशोविजयजी के ग्रंथो को पढने के बाद आपने तपागच्छ की दीक्षा लेने का विचार किया। क्योंकि इस गच्छ की सामाचारी आगमानुकूल प्रतीत होती है।
आपके मन मे सदा यही ऊर्मियां उठा करती थीं कि - "मैंने मतमतांतर तो बहुत देखे हैं, परन्तु वे मत तो मुझे मिथ्या प्रतीत हुए। जिनेश्वर प्रभु द्वारा प्रतिपादित आगमानुसार आचरण करनेवाले श्रमण-श्रमणी कहां विचरते होंगे ? कौनसे क्षेत्र में विद्यमान होंगे? देखना तो दूर रहा, सुना भी नहीं है । न जाने कितनी दूर किस क्षेत्र में विचरते होंगे? यह तो ज्ञानी जाने । यदि इस क्षेत्र में कोई होगा तो भी विरला ही होगा? इसका एकान्त निषेध तो नहीं किया जा सकता, क्योंकि वीतराग प्रभुने फरमाया है कि जैन शासन पंचमकाल में भी इक्कीस हजार वर्ष तक विद्यमान रहेगा। इसमें मुझे किंचित् मात्र भी सन्देह नहीं है। पर मेरी श्रद्धा तो महोपाध्याय श्रीयशोविजयजी के साथ बहुत मिलती है। उपाध्यायजी नाममात्र से तपागच्छ के कहलाये, पर वे इन गच्छों के झमेलों और इन वाडाबंधियों से बहुत ऊँचे थे। मेरा उपाध्यायजी के प्रति अनुराग बढा । उपाध्यायजी की सामाचारी को देखकर मेरा मन आकर्षित हुआ, पर इस काल में मुझे उनकी कोटि का कोई योग्य गुरू दृष्टिगत न हुआ, जिससे मैं संवेगी दीक्षा ग्रहण करता । मैंने सोचा कि ऐसा न होते हुए भी लोक-व्यवहार से मुझे गुरु तो अवश्य धारण करना ही चाहिये।"
चतुर्मास व्यतीत होने के बाद आप अपने दोनों शिष्यों (प्रेमचन्द, वृद्धिचन्द) के साथ भावनगर से विहार कर फिर
Shrenik/DIA-SHILCHANDRASURI/ Hindi Book (07-10-2013)/(1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5
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