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सद्धर्मसंरक्षक के कारण यहाँ से विहार करने का विचार करके मुनि श्रीवृद्धिचन्दजी ने अपने गुरुदेव से कहा कि "पूज्य गुरुदेव ! आपश्री मुझे यहाँ से विहार करने की आज्ञा प्रदान करें, और आपश्री यहीं विराजें । अवसर को ऐसा ही जानकर गुरुमहाराज ने मुनि प्रेमचन्दजी के साथ वृद्धिचन्दजी को विहार करने की आज्ञा दे दी और आपश्री ने यह भी सूचना की कि विहार करते हुए चौमासा करने के योग्य क्षेत्र मालूम होने पर हमें तुरत समाचार देना । विहार करते हुए प्रेमचन्दजी और वृद्धिचन्दजी दोनों गुरुभाई भावनगर पहुँचे और खुशालविजयजी की धर्मशाला में आकर ठहर गये।
पालीताना में भावनगर के श्रावक बेचरदास आदि मुनिश्री बूटेरायजी तथा इनके शिष्यों से मिल चूके थे। तब आप लोगों से मिलकर ये आपके गुणों से बहुत प्रभावित हुए थे। इन दोनों पंजाबी साधुओं के भावनगर पधारने पर यहा के श्रीसंघ के सामने इन लोगों ने बहुत प्रशंसा की । श्रीसंघ आपको आग्रहपूर्वक विनती करके सेठ के डेले में स्थिरता करने के लिये ले गया। यहाँ प्रतिदिन मुनि प्रेमचन्दजी व्याख्यान वाचते थे । व्याख्यान को सुनकर लोग बहुत प्रभावित और प्रसन्न होते थे। मुनि श्रीवृद्धिचन्दजी सामान्य उपदेश और चर्चा-वार्ता से तथा अनेक प्रकार के प्रश्नों के समाधान से सबका मन मोह लेते थे । यहाँ पर भी यतियों का बडा जोर था। श्रावक-समुदाय का अधिक भाग इन्हीं गौरजी (यतियों) का ही रागी था। कई लोग तो जैनधर्म को टिकाये रखनेवाले इन्हीं गौरजी को ही मानते थे, कहते थे कि यदि गौरजी न होते तो धर्मलोप हो जाता । जिस प्रकार आचार-विचार से ये लोग च्युत हो चुके थे,
Shrenik/DIA-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013)/(1st-11-10-2013)(2nd-22-10-2013) p6.5
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