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दाप पुण्य स्मरण-दिवस पर मैं दुखी भी हूं और आनंदित भी हूं। दुखी इसलिए हूं कि
महावीर का हम स्मरण करते हैं, लेकिन महावीर से हमें कोई प्रेम नहीं है। दुखी
इसलिए हूं कि धर्म-मंदिरों में हम प्रवेश करते हैं, लेकिन धर्म-मंदिरों पर हमारी कोई श्रद्धा नहीं है। दुखी इसलिए हूं कि हम सत्य की चर्चा करते हैं, लेकिन सत्य पर हमारी कोई निष्ठा नहीं है। और ऐसे लोग जो झूठे ही मंदिर में प्रवेश करते हों, और ऐसे लोग जो झूठा ही भगवान का स्मरण करते हों, उन लोगों से बुरे लोग हैं, जो भगवान का स्मरण नहीं करते
और मंदिरों में प्रवेश नहीं करते। क्योंकि वे लोग जो स्पष्टतया धर्म के विरोध में खड़े हैं, कम से कम नैतिक रूप से ईमानदार हैं-उनकी बजाय, जो धर्म के पक्ष में तो नहीं हैं, लेकिन पक्ष में खड़े हुए दिखाई पड़ते हैं।
सारी जमीन इस तरह के धार्मिक लोगों से भर गई है जो धार्मिक नहीं हैं, और उनके कारण धर्म रोज डूबता चला जाता है। और सारे मंदिर ऐसे लोगों से भर गए हैं जो नास्तिकों से भी बदतर हैं, और इसलिए मंदिर मंदिर नहीं रह गए हैं। उन ओंठों से भगवान महावीर का या बुद्ध का या कृष्ण का स्मरण, जिन ओंठों में सच में ही धर्म की कोई प्रतिष्ठा नहीं है, अपमानजनक है। इसलिए मैं दुखी हूं।
और इसलिए आनंदित भी हूं कि इतना सब हो जाने के बाद भी, मनुष्य के जीवन से धर्म की सारी जड़ें टूट जाने के बाद भी, मनुष्य के अंतस्तल से धर्म से सारे संबंध विच्छिन्न हो जाने के बाद भी, सारी निष्ठा और सारी आस्था खंडित हो जाने के बाद भी इसलिए आनंदित हूं, कि कम से कम हमारे मन में पच्चीस सौ वर्ष पहले कोई हुआ हो, पच्चीस सौ वर्ष पीछे इतिहास में कोई हुआ हो, उसके प्रति एक स्मृति की रेखा हमारे हृदय में उठती है। जो अंधकार घना है, उसके लिए दुखी हूं, लेकिन जो स्मृति की थोड़ी सी प्रकाश-किरण है, उसके कारण आनंदित भी हूं।
हम कितने ही दूर चले गए हों, लेकिन हमारे मन में एक स्मरण और एक स्मृति और एक खयाल मौजूद है। उस किरण के सहारे शायद पूरे अंधेरे को भी मिटाया जा सकता है।