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पत्थर से ऊपर उनकी धारणा नहीं हो सकती। अपने मित्र को मैंने सुबह कहा, उनसे कहो कि वे पत्थर मारें, उससे उनका मूर्तिवादी होना जाहिर होगा और मुझे मौका मिलेगा। अगर उनके पत्थर मझे लगें और फिर भी मेरे हृदय में उनके प्रति प्रेम हो, तो मैं समझंगा कि महावीर के प्रति मैंने श्रद्धांजलि जाहिर कर दी। तो मैंने उनसे कहा, उन्हें कहो कि वे पत्थर मारें। वे गलती करेंगे अगर पत्थर मुझे नहीं मारेंगे, क्योंकि उससे जाहिर होगा कि उनकी श्रद्धा क्या है और मुझे भी मौका मिलेगा कि मैं जाहिर कर सकूँ कि मेरी श्रद्धा क्या है। ईश्वर वह मौका दे कि मुझ पर पत्थर गिरें। ईश्वर मुझे मौका दे कि मैं देख सकूँ कि मेरे भीतर उन पत्थरों के बीच भी प्रेम उठता है या नहीं। अगर प्रेम नहीं उठा, तो फिर प्रेम की बात करना बंद कर दूंगा। फिर उसका कोई मतलब नहीं रह जाएगा। तो मैं निमंत्रण देता हूं, अगर किसी के भी मन में पत्थर मारने का कोई खयाल आता हो, तो जरूर उसका उपयोग कर ले।
और मैं यह कहना चाहता हूं कि महावीर की शिक्षा में, महावीर की बुनियादी शिक्षा में मुझे दो ही बातें दिखाई पड़ती हैं, और उनमें प्रेम प्रथम है। जिसको महावीर ने अहिंसा कहा है, वह प्रेम है। जिसको महावीर ने अहिंसा कहा है, वह प्रेम के सिवाय और क्या है?
महावीर की जीवन-साधना को मैं विचार करता हूं, तो मुझे दो बात दिखाई पड़ती हैं। एक तो बात मुझे यह दिखाई पड़ती है कि महावीर सत्य को पाने को उत्सुक हैं। सत्य का वे अनुसंधान कर रहे हैं। और दूसरी बात मुझे यह दिखाई पड़ती है कि वे प्रेम का विस्तार कर रहे हैं। सत्य को भीतर खोद रहे हैं और प्रेम को बाहर फैला रहे हैं। सत्य तो भीतर पाया जाता है और प्रेम बाहर फैलाया जाता है। जब अपने अंतिम अणु की आखिरी इकाई में कोई व्यक्ति प्रविष्ट हो जाता है, तो वह सत्य को उपलब्ध होता है। और जब इस विराट जगत के अंतिम प्राणी तक कोई व्यक्ति अपने प्रेम को पहुंचा देता है, तो वह सत्य को उपलब्ध होता है।
__ सत्य का विकास दोतरफा है: अपने भीतर प्रविष्ट हों तो आंतरिक गहराई में ज्ञान उपलब्ध होगा और समस्त के भीतर प्रविष्ट हो जाएं, तो आंतरिक गहराई में प्रेम या अहिंसा उपलब्ध होगी। जैसे कोई वृक्ष बढ़ता है, तो नीचे उसकी जड़ें गहरी जाती हैं और ऊपर उसका पौधा बढ़ता चला जाता है। जिस व्यक्ति की सत्य में जितनी गहराई बढ़ेगी, उसके जीवन के बाहर के पौधे में प्रेम उतना ही बढ़ता चला जाएगा।
प्रेम परीक्षा और कसौटी है। इसलिए महावीर ने कहा, अहिंसा परम धर्म है। महावीर ने कहा, अहिंसा ज्ञान की कसौटी और परख है। अगर ज्ञान के बाद अहिंसा न आ जाए, तो वह ज्ञान झूठा होगा, वह मिथ्या होगा।
हम ज्ञान को तो नहीं जान सकते, हम तो प्रेम को जान सकते हैं। महावीर के ज्ञान को आपने देखा है? महावीर के ज्ञान को कैसे देखिएगा? महावीर को जो सत्य उपलब्ध हुआ है, वह कैसे दिखाई पड़ेगा? क्राइस्ट को जो सत्य उपलब्ध हुआ है, किसी ने देखा? वे तो हमारे अनुमान हैं कि उनको सत्य उपलब्ध हुआ। हमने देखा है उनका प्रेम, हमने पहचाना है उनका प्रेम। और वह अनंत प्रेम ने हमें यह गवाही दी है कि भीतर सत्य उपलब्ध हुआ होगा। अगर भीतर सत्य उपलब्ध न हो तो इतना अनंत प्रेम कैसे हो सकता है?
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