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यह सोच-सोच कर कि दूसरे को दुख देना बुरा है, अहिंसक होने की चेष्टा करता है। इस तरह जो चेष्टित, कल्टीवेटेड अहिंसा है, वह कृत्रिम है, थोथी है, बाह्य है।
महावीर की अहिंसा नैतिक अहिंसा नहीं है। महावीर की अहिंसा यौगिक अहिंसा है। महावीर का मानना है, स्वयं में प्रतिष्ठित हो जाओ, स्वयं ज्ञान को उपलब्ध। तुम पाओगे, बाहर दूसरे को दुख देना असंभव हो गया। क्योंकि जिसके भीतर दुख नहीं है, वह दूसरे को दुख नहीं दे सकता है। जिसके भीतर आत्म-ज्ञान का प्रकाश और आनंद उपलब्ध हो गया, अनायास उससे आनंद ही बहेगा, प्रकाश ही बहेगा। कोई रास्ता न रहा कि उसके भीतर से आनंद के विपरीत कुछ बह जाए।
सच, अगर विचार करें, हम दूसरे को इसलिए दुख दे पाते हैं कि हम दुखी हैं। हम दूसरे के प्रति इसलिए हिंसक हो पाते हैं कि हम अपने प्रति हिंसक हैं और भीतर हिंसा से भरे हैं। दूसरे का प्रश्न नहीं है, अंततः अहिंसा का प्रश्न वैयक्तिक जागरण का प्रश्न है। मनुष्य अपने भीतर जाग जाए और उसे अनुभव कर ले, जो वहां बैठा है, हिंसा विसर्जित हो जाती है।
वहां पश्चिम ने पदार्थ के विश्लेषण, पदार्थ के खंडन, पदार्थ के आंतरिक रहस्य की खोज के द्वारा अणु को उपलब्ध किया है। अणु को उपलब्ध करके पाया कि विराट शक्ति हाथ में आ गई। विनाश की अदभुत शक्ति पर नियंत्रण हो गया है। पूरब ने भी प्रयोग किए। पश्चिम ने पदार्थ की सत्ता पर प्रयोग किए, पूरब ने मनुष्य की चेतना की सत्ता पर प्रयोग किए। महावीर का प्रयोग मनुष्य की चेतन सत्ता के विश्लेषण का प्रयोग है।
पदार्थ के विश्लेषण से उपलब्ध हुआ है अणु, मनुष्य की चेतना के विश्लेषण से उपलब्ध हुई है आत्मा।
पदार्थ के विश्लेषण से जो अणु उपलब्ध हुआ, वह विनाशक साबित हुआ। पदार्थ की सब शक्तियां अंधी हैं। और अंधों के हाथ में आ जाएं, तो परिणाम बुरे होने स्वाभाविक हैं। चैतन्य के विश्लेषण से, चैतन्य के जागरण से, चैतन्य में उतरने से जो उपलब्ध हुई आत्मा, वह सारे जीवन को, सारे दृष्टिकोण को बदल देती है।
महावीर ने कहा है, केवल वही अहिंसक हो सकता है, जो अभय को उपलब्ध हो।
अभय को कौन उपलब्ध होगा? जो आत्म-ज्ञानी नहीं है वह अभय को उपलब्ध हो सकता है? कोई भय को जबरदस्ती निकाल कर अभय को पा सकता है?
असंभव है, असंभव है। कोई भय को निकाल नहीं सकता। भय है मृत्यु का। अंतिम भय के पीछे मृत्यु बैठी हुई है। प्रतिक्षण चारों तरफ से जीवन मृत्यु से घिरा हुआ है। जब तक अमृत न दिख जाए, जब तक यह न दिख जाए कि मेरे भीतर कोई है जो नहीं मरेगा, नहीं मर सकता है, तब तक व्यक्ति अभय को उपलब्ध नहीं होता है। जब तक हम मर्त्य से घिरे हैं, जब तक हम जानते हैं कि जो भी हमारे आस-पास है, सब मृत्यु में समा जाएगा...।
और मैं तो कहने लगा, जीवन हमारे पास है ही नहीं, हम तो प्रतिक्षण मर ही रहे हैं। मृत्यु अनायास थोड़े ही एक दिन घटित हो जाती है। जीवन में सब विकास होता है। जिस दिन हम जन्मे, उसी दिन मृत्यु शुरू हो गई। जिस दिन जन्म हुआ, उसी दिन मरना शुरू हो गया। जिसको हम मृत्यु कहते हैं, वह उसी मरण की शुरुआत की अंतिम पूर्णाहुति है। कोई अचानक थोड़े ही
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