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तो मैं तो और प्रेम से उसे ग्रहण कर लेता। वह तो मेरे स्वरूप को और समृद्ध करता। लेकिन कोई दुख को ग्रहण नहीं करता है। यह इस बात की सूचना है कि दुख स्वरूप को समृद्ध नहीं करता है, दुख स्वरूप को बढ़ाता नहीं है, दुख स्वरूप के विपरीत है, अनुकूल नहीं है।
अगर दुख स्वरूप के विपरीत है, तो स्वरूप आनंद होगा। हम आनंद को चाहते हैं, क्योंकि हमारा स्वरूप आनंद है। हममें से कोई मृत्यु को नहीं चाहता, क्योंकि हमारा स्वरूप अमृत है। हममें से कोई अंधेरे को नहीं चाहता, क्योंकि हमारा स्वरूप प्रकाश है। हममें से कोई भय को नहीं चाहता, क्योंकि हमारा स्वरूप अभय है। हममें से कोई दीन-हीन नहीं होना चाहता, क्योंकि हमारा स्वरूप प्रभु है। अगर इस बात को समझें तो जो-जो हम नहीं चाहते हैं, वह हमारे स्वरूप की ओर संकेत है, वह हमारे स्वरूप की ओर इशारा है। जो-जो हम नहीं चाहते, उससे भिन्न हमारा स्वरूप होगा। यह चिंतन जिसमें जन्म पाए, जिसका अंतस्तल इस मंथन. इस आंदोलन से ग्रसित हो जाए यह पीडा और व्यथा पकड ले. यह सोच-विचार पकड़ ले, यह एक-एक जीवन के सत्य को पकड कर चिंतना शरू हो जाए. मैं दख क्यों नहीं चाहता। यह चिंतन हो जाए, मैं आनंद को खोज रहा हूं, लेकिन मैंने आनंद को खोया कहां है!
यह चिंतन शुरू हो जाए, तो व्यक्ति के जीवन में इस सारे चिंतन के परिणाम से एक अदभुत प्यास पैदा होनी शुरू हो जाएगी। उसकी जो वृत्ति बिना पूछे बाहर खोजती थी, पूछने की वजह से छिटक जाएगी, बाहर खोजने में रुकावट आ जाएगी और आंतरिक की तरफ, भीतर की तरफ झुकाव प्रारंभ हो जाएगा। चिंतन, इस सत्य का चिंतन कि जो जीवन हमें मिला है, वह क्या है? जिस जीवन की हमारी जो अनुभूतियां हैं, वे क्यों हैं? हम क्यों खोज रहे हैं आनंद को? क्या खोज रहे हैं? कहां खोज रहे हैं?
ये प्रश्न अगर जीवंत होकर, अगर ये प्रज्वलित होकर आपके सामने खड़े हो जाएं तो आपमें पहली दफा धर्म के प्रति जिज्ञासा शुरू होगी।
धर्म की जिज्ञासा का संबंध, परमात्मा है या नहीं, इससे नहीं है। धर्म की जिज्ञासा का संबंध, जगत को किसने बनाया या नहीं बनाया, इससे भी नहीं है। धर्म की जिज्ञासा का संबंध, आत्मा एक है या अनेक, इससे भी नहीं है। धर्म की मूल जिज्ञासा का संबंध इस सत्य से है कि जो दुख है, उसे मैं क्यों नहीं चाहता हूं? मैं दुख से सहमत क्यों नहीं हूं? और मेरी प्यास आनंद के लिए क्यों है? ये बाकी जो बातें हैं, ग्रंथ में होंगी, किताब में होंगी, जिंदगी से इनका कोई संबंध नहीं है। धर्म की जिज्ञासा जीवन के विश्लेषण और निरीक्षण से शुरू होती है।
महावीर के जीवन-दर्शन और साधना में सबसे महत्वपूर्ण जो मुझे बात प्रतीत होती है, वह यह है कि महावीर का चिंतन ग्रंथों से शुरू नहीं हो रहा, जीवन से शुरू हो रहा है। हमारा चिंतन ग्रंथों से शुरू होता है, जीवन से शुरू नहीं होता।
इस सत्य को बहुत विचार कर लेना जरूरी है।
मेरे पास लोग आते हैं। मुझ से कोई ईसाई आता है तो वह पूछता है, क्या वह मरियम, जिनसे ईसा का जन्म हुआ, कुंआरी थी? मैं उससे पूछता हूं, इससे क्या फर्क पड़ेगा जानने से? यद्यपि ईसाई के सिवाय यह प्रश्न मुझसे कोई दूसरा नहीं पूछता है। कोई जैन नहीं पूछता। जैन मुझसे पूछते हैं, निगोद क्या है? कोई ईसाई नहीं पूछेगा यह, क्योंकि उसको निगोद का पता ही
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