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लिया, उससे दुख में अंतर नहीं पड़ता है। तो फिर कुछ बुनियादी बात दूसरी होगी। दुख का संबंध कुछ पाने से नहीं है। दुख का संबंध, वह आंतरिक केंद्र, वह सेंटर खो देने से है।
हम अपने केंद्र पर नहीं हैं, यह हमारी पीड़ा है। हम अपने केंद्र पर आ जाएं, यह हमारा आनंद हो जाएगा। महावीर की समस्त साधना केंद्र-च्युत मनुष्य को वापस केंद्र कैसे दिया जाए, इसकी साधना है।
___हमारा दुख और पाप और कुछ नहीं है—एक ही दुख, एक ही पाप, एक ही पीड़ा है कि हम अपने केंद्र पर नहीं हैं। जो हमारा वास्तविक होना है, जो हमारा आथेंटिक बीइंग है, जो हमारी प्रामाणिक सत्ता है, उससे हम संबंधित नहीं हैं। हम बाहर कहीं घूम रहे हैं। हम अपने बाहर कहीं चक्कर काट रहे हैं। हम अपने से अजनबी और स्ट्रेंजर हो गए हैं। मनुष्य के जीवन में एक ही पीड़ा है, वह अपने से अजनबी हो सकता है। यह अजनबीपन, यह अपने को न जानना, यह अपने से परिचित न होना-समस्त धर्म इस परिचय की ओर ले जाने के मार्ग के सिवाय और कुछ भी नहीं है। कभी इस पर विचार करें, कभी इसको अनुभव करें, कभी इस सत्य को निरीक्षण करें- इस सत्य को निरीक्षण करें कि मैं अपने को जानता हूं?
महावीर को वही पीडा पकडी। सब उनके पास है। सब उनके पास था_सारी सविधा. सारी व्यवस्था, सारी समृद्धि। एक ही पीड़ा थी-खुद अपने पास नहीं थे। सब उनके पास था, स्वयं अपने पास नहीं थे। सब उन्हें उपलब्ध था म्व
हें उपलब्ध था, स्वयं की सत्ता अनुपलब्ध थी। सब उनकी जीत हो गई थी, लेकिन स्वयं अनजीता था। सब उन्होंने जान लिया था, एक केंद्र अनजाना
और अपरिचित था। जब सबको जान कर भी सुख न मिला, जब सबको पाकर भी सुख न मिला, जब सबको जीत कर भी शांति न मिली, तो स्वाभाविक था कि यह विचार उठे कि वह जो अनजीता एक बिंदु है, शायद आनंद और शांति का केंद्र वही हो।
अगर मैं इस घर में सारे कोने-कोने को तलाश लूं और मुझे प्रकाश न मिले, तो शायद मैं सोचूं कि जो कोना अनजाना, अपरिचित रह गया, उसे और खोज लें। जो सब पा लिया, उसे अनुभव हुआ कि सब पाने में आनंद नहीं मिला। शायद जो मैं स्वयं अपने को अनपाया छोड़ दिया, उसे पाने में आनंद हो! और जिन लोगों ने उस स्वयं को जानने की कोशिश की, उन्हें अनुभव हुआ, आनंद वहां था। आनंद पाना नहीं था, आनंद वहां मौजूद था, केवल उदघाटन करना था। आनंद खोजना नहीं था, आनंद स्वभाव था। केवल वस्त्र, आवरण अलग करने थे।
___ मैं एक कुएं को खुदते देखता था। मिट्टी की पर्ते अलग की गईं और नीचे से पानी के झरने आ गए। पानी वहां मौजूद था। मिट्टी से आवृत था। पानी लाया नहीं गया, केवल ऊपर के आवरण अलग किए गए, नीचे झरने फूट पड़े। वे झरने फूट पड़ने को बहुत उत्सुक थे। मिट्टी हटी नहीं कि उन्होंने फूटना शुरू कर दिया। वे बह पड़ने को बड़ी आकांक्षा से भरे थे। मिट्टी हटी नहीं और वे बहने लगे। वैसा ही हमारे भीतर आनंद उपस्थित है। केवल आवृत मिट्टी के थोड़े से अलग करने हैं। थोड़े से ऊपर जो आवरण हैं, उनको अलग करने हैं।
और यह जो मैं कहता हूं-या यह जो महावीर ने कहा, बुद्ध ने कहा, क्राइस्ट ने, कृष्ण ने कहा- यह जो कहा कि भीतर वहां ज्ञान, अनंत ज्ञान, अनंत शक्ति, अनंत आनंद मौजूद है; सच्चिदानंद वहां मौजूद है, केवल आवरण अलग करने हैं। यह कोई सिद्धांत नहीं है, यह कोई