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अगर चौबीस घंटे इसका सतत अनुस्मरण चले कि मैं शरीर नहीं हूं। जब रास्ते पर चलें, तो पता हो कि शरीर चलता है, मैं नहीं चलता। जब भोजन करें तो बोध हो कि भोजन शरीर करता है, मैं नहीं करता । जब कोई चोट आप पर करे तो जानें कि चोट शरीर पर की गई है, मुझ पर नहीं की गई। अगर यह सतत अनुस्मरण चले - यही अनुस्मरण और इस अनुस्मरण के साथ वैसी ही जीवन-चर्या का नाम तप है।
बहुत दुख झेलना होगा। अगर मुझे अभी आप यहां मारें, तो मुझे जानना होगा कि मुझे नहीं मारा गया। और जब मुझे नहीं मारा गया तो मैं आपको उत्तर क्या दूंगा ? उत्तर का कोई प्रश्न नहीं है। दूसरे को आप मारें तो हम उत्तर आपको क्या देंगे? दुख आए तो जानना कि दुख जिस पर आया है, वह मेरा घर है, मैं नहीं। ऐसा दुख में जानना, ऐसा सुख में जानना कि जो आया है, वह मेरे घर पर आया है, मुझ पर नहीं । सुख में अनुद्विग्न होना, दुख में अनुद्विग्न होना और दोनों में समता रखनी महावीर की मूल शिक्षा है। इसे वे सम्यकत्व कहते हैं। इसे वे समता का भाव कहते हैं । यह समता का भाव तभी फलित होगा, जब मैं यह स्मरण रख सकूं - सारी स्थितियों में यह स्मरण रख सकूं।
ऐसा व्यक्ति जो सुबह से सांझ तक, सांझ से सुबह तक सब करते हुए यह जानता ह हो, इस बात का बोध उससे छूटता न हो, यह स्मृति उससे विलीन न होती हो कि यह सब जो भी घटित हो रहा है यह मेरी अंतस - चेतना पर घटित नहीं हो रहा है, उसे एक अनुभव होगा। क्रमशः इसमें गति करते-करते एक दिन उसे पता चलेगा, वह बिलकुल अलग है और शरीर बिलकुल अलग है। यह बोध इतना स्पष्ट होगा, जितना स्पष्ट कोई बोध नहीं होता। आकाश और जमीन के बीच इतनी दूरी नहीं है, जितनी दूरी मेरी आत्मा और मेरे शरीर के बीच है। आकाश और जमीन मिलाए जा सकते हैं, मेरी आत्मा और मेरा शरीर मिलाया नहीं जा सकता । फासला बना ही रहेगा । इतने निकट उपस्थित है मेरा शरीर मेरी आत्मा के, लेकिन अनंत फासला है जो मिटाया नहीं जा सकता।
अगर आत्मा और शरीर का फासला मिट जाए तो फिर मोक्ष असंभव हो जाएगा । इसलिए पापी से पापी और बुरे से बुरे व्यक्ति की आत्मा और शरीर में उतनी ही दूरी है, जितनी पुण्यात्मा और जितनी श्रेष्ठतम व्यक्ति की आत्मा और शरीर में होती है। शरीर और आत्मा की दूरी उतनी ही है, जितनी आपकी है और जितनी महावीर के केवल - ज्ञान के बाद थी। शरीर और आत्मा की दूरी महावीर की कम नहीं होती, आपकी ज्यादा नहीं हो सकती, फर्क केवल बोध का पड़ता है। महावीर को दिखता है कि दूरी है, आपको दिखता नहीं कि दूरी है। जहां महावीर खड़े हैं, वहीं आप खड़े हैं। महावीर को दिख रहा है कहां खड़े हैं, आपको दिख नहीं रहा कि कहां खड़े हैं। इससे ज्यादा अंतर नहीं है।
अज्ञान से ज्यादा और कोई अंतर नहीं है ।
और वह अज्ञान एक ही है। बुनियादी अज्ञान एक ही है, यह भ्रम कि मैं शरीर हूं। हम इस भ्रम को पालते हैं और पोसते हैं। हम इस भ्रम को पालते हैं और पोसते हैं, अनेक-अनेक रूपों में इसका हम पोषण करते हैं, इसे सम्हालते हैं । इस भ्रम को सम्हालते हैं। दुर्जन भी सम्हालता है, सज्जन भी सम्हालता है। गृहस्थ भी सम्हालता है, साधु भी सम्हालता है। दोनों
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