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महावीर को विचारक न कहें। महावीर विचारक नहीं हैं। महावीर एक साधक और सिद्ध हैं। साधक और विचारक में यही अंतर है। विचारक सोचता है, सत्य क्या है? साधक जीता है।
विचारक सत्य के संबंध में सोचता है, साधक सत्य को जीता है।
हमने अपने इस देश में विचारकों की बहुत कीमत नहीं मानी। बहुत बड़े-बड़े विचारक हुए हैं, जिन्होंने बड़ी दूर की बातें कही हैं - सृष्टि की, सृष्टि के बनने की, परमात्मा की, स्वर्ग की, नरक की, बड़ी-बड़ी विचार की बातें कही हैं। महावीर इन विचारकों से नहीं हैं। महावीर बहुत सुदृढ़ भूमि पर खड़े हुए हैं । वे अपनी सारी चर्या को बदल रहे हैं। और यहां इस बात को भी मैं आपसे कह दूं, जो व्यक्ति मात्र विचार करता है, वह सत्य के संबंध में विचार करता है। और जो व्यक्ति जीवन में सत्य को उतारता है और आचरण करता है, वह सत्य के संबंध में विचार नहीं करता, वह आनंद के संबंध में साधना करता है।
महावीर सत्य के खोजी नहीं हैं, महावीर आनंद के खोजी हैं।
सत्य का खोजी एक दार्शनिक होता है, एक तत्व - चिंतक होता है। आनंद का खोजी एक योगी होता है। महावीर आनंद की खोज कर रहे हैं। और इसलिए यह हो सकता है कि कोई विचार कभी गलत हो जाए, यह कभी नहीं हो सकता कि आनंद गलत हो जाए।
इस जमीन पर विचार की दृष्टि से हम भिन्न-भिन्न हो सकते हैं, आपका विचार दूसरा हो सकता है, मेरा विचार दूसरा हो सकता है। लेकिन आनंद की तलाश में हम भिन्न-भिन्न नहीं हो सकते । सब की तलाश आनंद की है।
इसलिए महावीर का धर्म सार्वजनीन, सार्वलौकिक धर्म है। इस जगत में जो भी आनंद को खोजना चाहेगा, उसे महावीर के सिवाय कोई रास्ता नहीं है।
महावीर अगर विचारक होते तो कुछ थोड़े से लोगों के मतलब की उनकी बात होती, जो उनके विचार से सहमत होते । जो उनके विचार के विरोध में होते, उनके लिए कोई मतलब न रह जाता। इसलिए विचारकों के पंथ होते हैं, योगियों का कोई पंथ नहीं होता । विचारकों के संप्रदाय होते हैं, आनंद के खोजियों के कोई संप्रदाय नहीं होते। क्योंकि आनंद के लिए तो सारा जगत खोज कर रहा है। उस संबंध में कोई मतभेद नहीं है। एक छोटे से कीटाणु से लेकर मनुष्य तक सभी आनंद की तलाश कर रहे हैं। आनंद के संबंध में दो मत नहीं हैं, कोई विरोध नहीं है। इसलिए विचार ऊपरी बात है, आनंद की खोज बहुत गहरी बात है।
अगर मैं आपसे यह कहूं कि आपके सामने दो विकल्प हैं- क्या आप परिपूर्ण आनंद उपलब्ध करना चाहते हैं या कि परिपूर्ण विचार उपलब्ध करना चाहते हैं? अगर आपके सामने दो विकल्प हों, अगर आपके सामने दो विकल्प खड़े हो जाएं कि क्या आप जानना चाहते हैं कि जगत- सत्य क्या है? या कि आप होना चाहते हैं कि परिपूर्ण आनंद क्या है? तो मैं नहीं समझता कि आपके हृदय सत्य को जानने की गवाही देंगे । आपके हृदय कहेंगे, हम पूर्ण आनंद को उपलब्ध होना चाहते हैं ।
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सत्य को भी इसीलिए खोजा जाता है कि पूर्ण आनंद की तलाश में वह सहयोगी हो जाए। सत्य का अपने में क्या मूल्य है ? सत्य का अपने में कोई मूल्य नहीं है सिवाय इसके कि सत्य की उपलब्धि से हम सोचते हैं कि पूर्ण आनंद के आधार रखे जा सकेंगे।
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