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कभी-कभी कितना आश्चर्य होता है कि जो इतना निकट और इतना सहज जानने योग्य है, वह भी हमें विस्मृत हो जाता है। शायद जो बहुत स्पष्ट और बहुत निकट होता है, वह निकटता की अति के कारण ही दिखना बंद हो जाता है।
वह दूसरा पहलू यह है कि जो स्वयं के पास नहीं है, उसे किसी से लिया भी नहीं जा सकता है। जो स्वयं में नहीं है, उसे देना तो संभव है ही नहीं, लेना भी संभव नहीं है। जो भी अन्य से पाया जा सकता है, वह पाने के पूर्व स्वयं में उपस्थित होना चाहिए, तो ही उसके प्रति संवेदनशीलता, सेंसिटिविटी और ग्रहणशीलता, रिसेप्टिविटी होती है। मैं जो हूं उसे ही स्वीकार कर पाता हूं, उसके ही मुझ में द्वार, ओपनिंग और उसे आकर्षित करने की क्षमता होती है।
हम देखते हैं कि एक ही भूमि से कैसे भिन्न-भिन्न पौधे भिन्न-भिन्न रूप, रंग और गंध आकर्षित कर लेते हैं। उनमें जो है, वही उनमें चला भी आता है। वे जो हैं, वही वे पा भी लेते हैं। यही नियम है, यही शाश्वत व्यवस्था है।
प्रेम पाने को प्रेम से भरे होना आवश्यक है। जो घृणा से भरा है, वह घृणा को ही आमंत्रित करता है। विष से जिसने अपने को भर रखा है, सारे जगत का विष उसकी ओर प्रवाहमान हो जाता है। समान समान को, सजातीय सजातीय को पुकारता और उसका प्यासा होता है। अमृत को जो चाहता हो उसे अमृत से भर जाना होता है। प्रभु को जो चाहता है, उसे अपने प्रभु को जगा लेना होता है। जो चाहते हो, वही हो जाओ। जिससे मिलना चाहते हो, वही बन जाओ। आनंद को पकड़ने के लिए आनंद में होना आवश्यक है, आनंद ही होना आवश्यक है। आनंद ही आनंद का स्वागत और स्वीकार कर पाता है।
क्या देखते नहीं हैं कि दुखी चित्त ऐसी जगह भी दुख खोज लेता है जहां दुख है ही नहीं? पीड़ित पीड़ा खोज लेता है, उदास उदासी खोज लेता है। वस्तुतः वे जिसके प्रति संवेदनशील हैं, उसका ही चयन कर लेते हैं। जो भीतर है, उसका चयन भी होता है, और उसी का प्रक्षेपण, प्रोजेक्शन, आरोपण भी होता है। हम जो हैं, उसी को खोज भी लेते हैं। जगत, जगत की स्थितियां दर्पण हैं, जिसमें हम अनेक कोणों से, अनेक रूपों में अपने ही दर्शन कर लेते हैं।
मैं जो देता हूं, वह भी मैं ही हूं। मैं जो लेता हूं, वह भी मैं ही हूं। मैं के अतिरिक्त मेरी कोई सत्ता, कोई अनुभूति नहीं है। उसके बाहर जाना संभव नहीं है। वही संसार है, वही मोक्ष है। वही दुख है, वही आनंद है। वही हिंसा है, वही अहिंसा है। वही विष है, वही अमृत है।
एक मंदिर के द्वार पर हए विवाद का स्मरण आता है। सबह की हवाओं में मंदिर की पताका लहरा रही थी। सूरज के स्वर्ण-प्रकाश में आंदोलित उस पताका को देख कर दो भिक्षुओं में विवाद हो गया था कि आंदोलन, मूवमेंट पताका में हो रहा था कि हवाओं में हो रहा था? किसी निकट से निकलते हुए तीसरे भिक्षु ने कहा था : मित्र, आंदोलन मन, माइंड में हो रहा है।
सच ही, सब आंदोलन मन में हो रहा है और मन का हो रहा है।
मैं यदि भूलता नहीं हूं, तो महावीर ने कहा है : यह आत्मा ही शत्रु है, यह आत्मा ही मित्र है।
__ आत्मा की शुद्ध परिणति अहिंसा है, आत्मा की अशुद्ध परिणति हिंसा है। वह व्यवहार की ही नहीं, मूलतः सत्व की सूचना है।
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