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________________ और निस्सार हो जाती है। इसके ज्ञान के अभाव में श्रम की सब धाराएं दुख के सागर में ले जाती हैं। जीवन की परिधि पर तो केवल क्रियाएं, बिकमिंग हैं; सत्ता, बीइंग तो वहां नहीं है। मैं, मेरा अस्तित्व, मेरा होना, एक्झिस्टेंस तो वहां नहीं है। मैं अपनी प्रामाणिक सत्ता, आथेंटिकनेस में तो उस तल पर अनुपस्थित हूं। क्रिया, बिकमिंग के तल पर मुझे नहीं पाया जा सकता है। उससे कहीं और गहरे और गहराइयों, डेप्थ्स में उसे पाया जा सकता है जो मैं हूं। इस गहराई को जाने बिना, इस आत्यंतिक रूप से आंतरिक से संबंधित हुए बिना जीवन एक भटकाव है, एक बोझिल यात्रा है। इस स्व से, इस सत्ता से संबंधित हुए बिना जीवन एक आनंद यात्रा में परिणत नहीं होता है। ___ मैं एक उखड़े हुए वृक्ष का स्मरण करता हूं। जब भी मनुष्य के संबंध में सोचता हूं, यह अनायास ही स्मृति में उभर आता है। न जाने क्यों मैं मनुष्य को वृक्ष से भिन्न नहीं समझ पाता हूं। शायद जड़ों, रूट्स के कारण ही यह समता चित्त में धर गई है। व्यक्ति अपने सत्ता केंद्र से टूट जाए तो उखड़े वृक्ष की भांति हो जाता है। स्वरूप से जो वियुक्त है, वह सत्ता से जड़ें खो रहा है। कैसा आश्चर्य है कि हम स्वयं से ही अपरिचित होते जा रहे हैं! जैसे वह दिशा जानने की ही नहीं है! जैसे वह कोई दिशा, डायरेक्शन ही नहीं है! यदि भूल-चूक से कोई अपने से मिल जाए, यदि अनायास कहीं स्वयं से साक्षात, एनकाउंटर हो जाए, तो जिससे मिलन हआ है, उसे देख अवाक हो रह जाना पड़ेगा, पहचानना तो किसी भी तरह संभव नहीं है। स्व से, स्वभाव से हमारी जड़ें उखड़ गई हैं। हम हैं, पर स्वयं में नहीं। सबसे परिचित हैं, पर स्वयं से अनजान और अजनबी, स्ट्रेंजर हो गए हैं। बाहर ज्ञान बढ़ा है, भीतर अज्ञान घना हो गया है। दीए के तले अंधेरा होने की बात बहुत सच हो गई है। शक्ति आई है, शांति विलीन हो गई है। विस्तार हुआ है, गहराई नहीं आई है। असंतुलन और पक्षाघात से घिर गए हैं, जैसे कोई वृक्ष बाहर विस्तृत हो, पर भीतर उसकी जड़ें सड़ने लगी हों, ऐसा ही मनुष्य के साथ हुआ है। इससे दुख, विषाद और संताप पैदा हुआ है, निराशा और आसन्न मृत्यु की कालिमा बनी हुई है, जैसी किसी भी वृक्ष की भूमि से जड़ें ढीली होने पर होती है। मनुष्य की भी जड़ें हैं और उसकी भी भूमि है। इस सत्य को पुनउंदघोषित करने की आवश्यकता है। यह अत्यंत आधारित सत्य विस्मृत हो गया है। इस विस्मृति के कारण हम क्रमशः अपनी जड़ें अपने हाथों खो रहे हैं। एक सतत आत्मघात, स्युसाइड में हम लगे हैं। यह जड़ों को खोना, अपरूटेडनेस हमें निरंतर गहरे से गहरे दुख, विषाद और मृत्यु में ले जा रहा है। ___व्यक्ति-व्यक्ति को मैं दुख से घिरा देखता हूं। और यह स्मरणीय है कि जब एक व्यक्ति दुखी होता है, तो वह अनेकों के दुख का कारण बन जाता है। मैं यदि दुखी हूं, तो अनिवार्यतः दूसरों के दुख का कारण बन जाऊंगा। जो मैं हूं, वही मेरे संबंधों में व्याप्त हो जाता है। यह स्वाभाविक ही है। क्योंकि अपने संबंधों में मैं स्वयं को ही तो डालता और उंडेलता हूं, अन्यथा संभव नहीं है। मेरे संबंध मेरे ही प्रतिरूप और मेरे ही स्वर हैं। उनमें मैं ही प्रतिबिंबित और प्रतिध्वनित हूं। मैं ही उनमें उपस्थित हूं। इससे यदि मैं दुखी हूं, दुख हूं, तो दुख ही मुझ से प्रवाहित और प्रसारित होगा। सरोवर में जैसे लहर-वृत्त एक छोटे से केंद्र पर उठ कर दूर-दूर व्यापी हो जाते हैं, ऐसे ही मेरे व्यक्ति केंद्र पर जो संवृत्त जाग जाते हैं, वे मुझ तक ही 195
SR No.009968
Book TitleMahavir ya Mahavinash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRajnish Foundation
Publication Year2011
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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