________________
एक अनुभव है, सिद्धांत नहीं। और अनुभव के रास्ते बहुत भिन्न हैं, सिद्धांत को समझने के रास्ते बहुत भिन्न हैं-अक्सर विपरीत।
सिद्धांत को समझना हो तो शास्त्र में चले जाएं, शब्द की यात्रा करें, तर्क का प्रयोग करें। अनुभव में गुजरना हो तो शब्द से, तर्क से, शास्त्र से क्या प्रयोजन है? सिद्धांत को शब्द के बिना नहीं जाना जा सकता और अनुभूति शब्द से कभी नहीं पाई गई। अनुभूति पाई जाती है निःशब्द में और सिद्धांत है शब्द में। दोनों के बीच विरोध है। जैसे ही अहिंसा सिद्धांत बन गई वैसे ही मर गई। फिर अहिंसा के अनुभव का क्या रास्ता हो सकता है?
अब महावीर जैसा या बुद्ध जैसा कोई व्यक्ति है तो उसके चारों तरफ जीवन में हमें बहुत कुछ दिखाई पड़ता है। जो हमें दिखाई पड़ता है, उसे हम पकड़ लेते हैं : महावीर कैसे चलते हैं, कैसे खाते हैं, क्या पहनते हैं, किस बात को हिंसा मानते हैं, किस बात को अहिंसा। महावीर के आचरण को देख कर हम निर्णय करते हैं और सोचते हैं कि वैसा आचरण अगर हम भी बना लें तो शायद जो अनुभव है वह मिल जाए। लेकिन यहां भी बड़ी भूल हो जाती है। अनुभव मिले तो आचरण आता है, लेकिन आचरण बना लेने से अनुभव नहीं आता। अनुभव हो भीतर तो आचरण बदलता है, रूपांतरित होता है। लेकिन आचरण को कोई बदल ले तो अभिनय से ज्यादा नहीं हो पाता। महावीर नग्न खड़े हैं तो हम भी नग्न खड़े हो सकते हैं। महावीर की नग्नता किसी निर्दोष तल पर नितांत सरल हो जाने से आई है। हमारी नग्नता हिसाब से, गणित से, चालाकी से आएगी। हम सोचेंगे नग्न हुए बिना मोक्ष नहीं मिल सकता। तो फिर एक-एक वस्त्र को उतारते चले जाएंगे। हम नग्नता का अभ्यास करेंगे।
अभ्यास से कभी कोई सत्य आया है? अभ्यास से अभिनय आता है।
एक गांव के पास से मैं गुजर रहा था। एक मित्र संन्यासी हो गए हैं। उनका झोपड़ा पड़ता था पास, तो मैं देखने गया। जंगल में, एकांत में झोपड़ा है। पास पहुंच कर देखा मैंने कि अपने कमरे में वह नग्न टहल रहे हैं। दरवाजा खटखटाया तो देखा वह चादर लपेट कर आए हैं। मैंने उनसे पूछा, भूलता नहीं हूं, खिड़की से मुझे लगा कि आप नंगे टहल रहे थे, फिर चादर क्यों
174