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महावीर की जो साधना है, वह संपत्ति छोड़ने की नहीं, स्वत्व को छोड़ने की है। स्वत्व छूटता है तो संपत्ति तो अपने आप छूट जाती है। जो संपत्ति छोड़ते हैं, उनका स्वत्व जरूरी रूप से नहीं छूटता।
महावीर की साधना स्वयं को विलीन और विसर्जित कर देने की है।
महावीर का कहना यह है कि जिसका अहंकार मर जाएगा, अहंकार की मृत्यु पर उसे आत्मा के दर्शन होंगे। जब तक अहंकार है, तब तक आत्मा का कोई दर्शन नहीं है। जो आत्मा को जानना चाहता हो, उसे मैं को, मैं-भाव को विसर्जित और विलीन कर देना होगा।
मैं की बदलियों के पीछे आत्मा का सूरज छिपा है। और जब तक मैं की बदलियां घिरी रहें, तब तक आत्मा के सूरज के दर्शन नहीं होंगे। इसलिए महावीर की समस्त साधना मैं को छोड़ देने की साधना है। सब तरफ से, सब उपायों से यह भाव छूट जाए कि मैं कुछ हूं। जिसका यह भाव छूट जाता है कि मैं कुछ हूं, उसे यह भाव मिलता है कि मैं सब कुछ हूं। जो शून्य हो जाता है, वह पूर्ण को पा लेता है। और जो सब छोड़ कर नग्न खड़ा हो जाता है, रिक्त और खाली, वह इस सारे, समस्त सृष्टि के रहस्य का मालिक हो जाता है।
मैं को छोड़ना महावीर का बुनियादी आधार है।
आपने सुना होगा कि महावीर की शिक्षा अहिंसा की है। और मैं आपको यह कहूं कि अहिंसक केवल वही होता है, जिसके भीतर मैं-भाव विलीन हो जाता है। मैं ही एकमात्र हिंसा है, अहंकार! यह बोध कि मैं कुछ हूं, यह एकमात्र हिंसा है और सब हिंसाओं में ले जाती है। हिंसक में और कुछ भी नहीं है, मैं की प्रगाढ़ता है।
अहिंसक में क्या है? मैं की शून्यता है, मैं-भाव का विलीन हो जाना है।
आज दोपहर ही मैं एक साधु की बात करता था। वहां दूर चीन में एक साधु हुआ। वह जब अपने गुरु के आश्रम पर गया तो उसके गुरु ने आंख उठा कर उसको देखा। गुरु के देखते ही उसे खुशी हुई कि गुरु ने मुझे देखा, मुझे स्वीकार किया, मुझे इज्जत दी। लेकिन जैसे ही उसके मन में यह खयाल उठा कि गुरु ने मुझे स्वीकार किया, मुझे देखा, मुझे इज्जत दी, वैसे ही गुरु की आंखें नीचे झुक गईं और बंद हो गईं। उसके तीन वर्ष तक गुरु ने फिर आंख उठा कर नहीं देखा। वह बहत हैरान हआ कि मझसे क्या भल हो गई?
उसने अपने किसी मित्र साधु को पूछा कि मुझसे क्या भूल हो गई? गुरु ने मुझे देखा था, मैं प्रसन्न हुआ और उस दिन से उनकी आंखें नीचे झुक गईं! तो उसके मित्र ने कहा, मत घबड़ाओ। उनके देखने से तुम्हारे मैं-भाव में सजगता आई होगी, इसलिए उन्होंने फिर नहीं देखा। क्योंकि तब तो देखना पाप हो जाएगा। तुम्हारा मैं प्रगाढ़ होगा उनके देखने से, कि गुरु मेरी ओर देखते हैं, तो पाप हो जाएगा। इसलिए गुरु तुम्हारी ओर नहीं देखते हैं। तुम उस दिन उनकी आंख के योग्य बनोगे जब उनकी आंख तुम्हें देखे, लेकिन तुम्हें कुछ भी पता न पड़े।
ऐसे तीन वर्ष बीते। एक दिन बगीचे में गुरु ने न केवल देखा, बल्कि गुरु उसे देख कर हंसे और मुस्कुराए भी। उसे पहले जैसा बोध तो नहीं हुआ अहंकार का, लेकिन एक आश्चर्य का भाव आया कि आज वे क्यों तीन साल के बाद हंस रहे हैं!
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