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ज्ञान
महावीर ने कुछ पाने के लिए नहीं छोड़ा। महावीर की हालत उस आदमी की हालत है, जिसके सामने हीरों की खदान आ गई है और अब पत्थर इसलिए छोड़ रहा है कि अब पत्थर रखने का कोई प्रयोजन नहीं रह गया है, अब हीरे रखने का मौका सामने आ गया है। हीरे मिल गए हैं, इसलिए पत्थर छोड़े जा रहे हैं। जिस आदमी को हीरे मिल जाएं, अगर वह घर में से पत्थर निकाल कर बाहर फेंक दे और हीरों से कोठरी भर ले, आप उसको त्यागी कहेंगे? कहेंगे त्यागी उसको?
मेरे घर में बहुत कबाड़ भरा है, फर्नीचर है, फलां है, ढिका है, सब इकट्ठा है। कल मुझे हीरे की एक खदान मिल जाए। सब फर्नीचर-वर्नीचर, कबाड़, सब बाहर निकाल दूंगा, हीरे भर लूंगा; आप सब मिल कर मुझे महा-तपस्वी कहेंगे? कि ये महान तपस्वी हैं, इन्होंने घर का कूड़ा-कचरा सब बाहर त्याग कर दिया! कोई मुझे महा-तपस्वी नहीं कहेगा।
महावीर को भी महा-तपस्वी मत कहिए, महा-ज्ञानी कहिए। ज्ञान से तपस्वी हैं।
ज्ञान से त्याग फलित होता है। ज्ञान का त्याग सहज फल है, लेकिन त्याग से ज्ञान कभी नहीं मिलता। ज्ञान से त्याग मिल जाता है, लेकिन त्याग से ज्ञान कभी नहीं मिलता।
पच्चीस सौ साल से महावीर के पीछे चलने वाला इसी मुसीबत में उलझा है, वह त्याग करके ज्ञान पाने की कोशिश कर रहा है। और महावीर के जीवन में जो घटना घटी है, से त्याग की है। ये बिलकुल रिवर्स, बिलकुल उलटी वैल्यूज पकड़ जाती हैं; और तब सारी की सारी दृष्टि भ्रांत हो जाती है। फिर हमारे हाथ में एक ही गुणगान रह जाता है करने को। जब हम त्याग भी करते हैं और आनंद नहीं मिलता, ज्ञान नहीं मिलता, तो हम सोचते हैं पिछले जन्मों का कोई कर्म बाधा दे रहा है, या हमारा त्याग पूरा नहीं है, या हमारे मन में वासना शेष रह गई है। और फिर यह कोई एक-दो दिन का काम तो नहीं है, यह तो जिंदगी-जिंदगी लगती हैं, अनेक जन्म लगते हैं, तब कहीं यह हो पाएगा। यह कोई छोटी बात थोड़े ही है! फिर हम ऐसा कंसोलेशन, ऐसी बातें ढूंढ-ढूंढ कर मन को समझाते हैं, सांत्वना देते हैं। लेकिन ये सांत्वनाएं खतरनाक हैं। सचाई उलटी है। ज्ञान को खोजिए, ज्ञान मिल सकता है; क्योंकि ज्ञान आपके प्राणों में छिपा हुआ दीया है, जिसे कहीं लेने नहीं जाना।
___ महावीर का यही अनुभव, महावीर का यही केंद्रीय अनुभव है कि ज्ञान मनुष्य का स्वभाव है, ज्ञान मनुष्य की आत्मा का धर्म है, ज्ञान मनुष्य की आत्मा ही है। इसलिए ज्ञान को खोजने कहीं जाना नहीं है, ज्ञान भीतर है। भीतर की तरफ मुड़ते ही, शांत होते ही, शून्य होते ही, मौन होते ही उस ज्ञान की किरणें मिलनी शुरू हो जाती हैं।
__ लेकिन भीतर दो तरह के आदमी नहीं मुड़ पाते। एक तो वे नहीं मुड़ पाते, जो बाहर की दुनिया में धन इकट्ठा करते हैं, बाहर की दुनिया में मकान बनाते हैं, बाहर की दुनिया में यश कमाते हैं। वे लोग भीतर की तरफ कैसे मुड़ें? उनका मन बाहर की तरफ लगा है। दूसरे वे लोग नहीं मुड़ पाते और इसे ठीक से सुन लेना, क्योंकि पहली बात सुनी हुई होगी, दूसरी बात विचारणीय है-दूसरे वे लोग नहीं मुड़ पाते, जो बाहर के त्याग में पड़े रहते हैं। धन छोड़ो, मकान छोड़ो, स्त्री छोड़ो, यह छोड़ो, वह छोड़ो-इनकी दृष्टि भी बाहर है। इकट्ठा करने वाले की दृष्टि भी बाहर है, छोड़ने वाले की दृष्टि भी बाहर है, क्योंकि दोनों का ऑब्जेक्ट बाहर है।
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