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मेरे प्रिय आत्मन्!
एक छोटी सी घटना से मैं अपनी आज की बात को शुरू करना चाहूंगा।
एक फकीर, एक संन्यासी प्रभु की खोज में पृथ्वी की परिक्रमा कर रहा था। वह किसी मार्गदर्शक की तलाश में था-कोई उसकी प्रेरणा बन सके, कोई उसे जीवन के रास्ते की दिशा बता सके। और आखिर उसे एक वृद्ध संन्यासी मिल गया राह पर ही, और वह उस वृद्ध संन्यासी के साथ सहयात्री हो गया।
लेकिन उस वृद्ध संन्यासी ने कहा कि मेरी एक शर्त है यदि मेरे साथ चलना हो तो। और वह शर्त यह है कि मैं जो कुछ भी करूं, तुम उसके संबंध में धैर्य रखोगे और प्रश्न नहीं उठा सकोगे। मैं जो कुछ भी करूं, उस संबंध में मैं ही न बताऊं, तब तक तुम पूछ नहीं सकोगे। अगर इतना धैर्य और संयम रख सको तो मेरे साथ चल सकते हो।
उस युवक ने यह शर्त स्वीकार कर ली और वे दोनों संन्यासी यात्रा पर निकले। पहली ही रात वे एक नदी के किनारे सोए और सुबह ही उस नदी पर बंधी हुई नाव में बैठ कर उन्होंने नदी पार की। मल्लाह ने उन्हें संन्यासी समझ कर मुफ्त नदी के पार पहुंचा दिया। नदी के पार पहुंचते-पहुंचते युवा संन्यासी ने देखा कि बूढ़ा संन्यासी चोरी-छिपे नाव में छेद कर रहा है! नाव का मल्लाह तो नदी के उस तरफ ले जा रहा है, और बूढ़ा संन्यासी नाव में छेद कर रहा है। वह युवा संन्यासी बहुत हैरान हुआ, यह उपकार का बदला? मुफ्त में उन्हें नदी पार करवाई जा रही है! उस गरीब मल्लाह की नाव में किया जा रहा यह छेद?
भूल गया शर्त को। कल रात ही शर्त तय की थी। नदी से उतर कर वे दो कदम भी आगे नहीं बढ़े होंगे कि उस युवा संन्यासी ने पूछा कि सुनिए! यह तो आश्चर्य की बात है। एक संन्यासी होकर, जिस मल्लाह ने प्रेम से नदी पार करवाई, मुफ्त सेवा की सुबह-सुबह, उसकी नाव में छेद करने की बात मेरी समझ में नहीं आती, कि उसकी नाव में आप छेद करें! यह कौन सा बदला हुआ–नेकी के लिए बदी से, भलाई का बुराई से?
उस बूढ़े संन्यासी ने कहा, शर्त तोड़ दी तुमने। सांझ को ही हमने तय किया था कि तुम
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