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अर्थ - जैन शास्त्रों में कहे हुए आचार को पालनेमें असमर्थ होते हुए भी जो जिन वचनका ही कथन करता है, उससे विपरीत कथन नहीं करता, वह (ही) सत्यवादी है। भावार्थ - जैन सिद्धान्तमें आचार आदिका जैसा स्वरूप कहा है, वैसा ही कहना । ऐसा नहीं कि जो अपने से न पाला जाये, लोकनिन्दाके भयसे उसका अन्यथा (विपरीत) कथन करे । (पृष्ठ २९६)
महावीर ने जिन जीवन मूल्यों की स्थापना की थी, वे शाश्वत हैं: उन्होंने जिस सत्य का उद्घाटन किया था, वह अनादि अनन्त है । महावीर और उनका दर्शन आज भी अत्यन्त प्रासंगिक है। (मैं सिखाने नहीं, जगाने आया हूँ - पृष्ठ ७९)
गृहस्थाश्रम का पाप जो फल देता है, मनिपद मे रह कर किया हुवा पाप उससे भयानक फल देता है । क्योंकि जो जितनी अधिक ऊँचाई से गिरता है, उसे उतनी ही अधिक चोट पहँचती है। इसलिए तत्त्वज्ञानी को चाहिए कि वह अपनी मान्यता के अनुसार आगम बदलने का प्रयत्न करने के बजाय आगम के अनुसार अपनी मान्यता बनाए । जिनवाणी-जिनागम की बात सुनना - सुनाना । परन्तु पंचमकाल अथवा परिस्थिति की आड़ लेकर मुनिचर्या में मृदुता लाने की अहितकारी बात न कहना चाहिए और न सुनना चाहिए । इसी में सबका कल्याण है।
त्याग नहीं भोग। नौवीं प्रतिमा को धारण करने वाला श्रावक (भी) वस्त्र और भिक्षापात्र को छोड़कर बाकी के समस्त परिग्रहों का त्याग कर देता है। (रत्नकरण्ड श्रावकाचार (उत्तरार्ध)-पृष्ठ ७४०) गणधराचार्य कुन्थुसागरकृत इस कथन को भूलकर जो साधुवेशधारी नॅपकीन, मोबाईल, मोटर आदि परिग्रह रखते हैं, चाहे वे स्वयं अपने पास रखे अथवा संघस्थ श्रावकों के पास रखे, उसमें उनकी मूर्छा और स्वामित्व होने से वह उनका ही परिग्रह है। जैसे कोई अपने पास अधिक धन नहीं रखकर बैंक मे रखता है, परन्तु उसका स्वामित्व उसके पास ही रहता है, वैसे ही संघस्थ श्रावकों के पास रखी हुई वस्तुओं का स्वामी वह साधु ही होता है। अपि च, मोटर'' कड़वे सच
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मोबाईल आदि दूसरे के नाम से खरीदकर, अपने आपको निर्दोष दिखाने का नाटक करने से परिग्रह के दोष के साथ-साथ वह मायाचारी के दोष से भी लिप्त होता है।
अनगार धर्मामृत (टीका) में कहा है - छोड़ सकने योग्य सभी प्रकारके परिग्रहोंको छोड़ देना चाहिए । बालकी नोकके बराबर भी छोड़ने योग्य परिग्रहको अपने पास नहीं रखना चाहिए। अपने पास न रखनेसे ऐसा आशय नहीं लेना चाहिए कि स्वयं न रखकर किसी दूसरेके अधिकारमें रख दे जैसा कि आजकल साधु संघ मोटर रखते हैं और उसे किसी संघस्थ श्रावकको सौंप देते हैं। यह परिग्रहका त्याग नहीं है, उसका भोग है। (पृष्ठ ३०३-३०४)
त्याग न कर संग्रह करे, विषय भोग संसार । अवन्द्य ऐसे संत को, बार-बार धिक्कार ।।
बगुला भगत तप और चारित्र से चमकने के बजाय पंचम काल और हीन संहनन की आड लेकर रोज घी-तेल आदि लगाकर-लगवाकर चमड़ी चमकाने में ही धन्यता माननेवाले एवं "श्रमणता पाने के उपरान्त किसी भी प्रकार की कमी अनुभूत नहीं होना चाहिए।" इस सूत्र के अनुसार रुक्ष-स्निग्ध, ठंडा-गरम, नमक-मसालों से सहित-रहित जैसा मिले वैसा शुद्ध भोजन समता और प्रसन्नता से ग्रहण करने के बजाय चौके में जाकर गरमा-गरम पदार्थ बनवाकर अध:कर्म से आहार उत्पन्न करनेवाले जिह्वालोलुप मनुष्य साधुवेष लेकर ऐसे शोभायमान हो रहे हैं जिस प्रकार कोई बगुला एक पाँवपर खड़ा होकर निरन्तर भोली-भाली मछलियों को फंसाकर धन्य होता
अहो ! कलिकालका यह महान आश्चर्य तो देखो कि ऐसे बगुला भगत अपने आपको सद्गुरु समझकर भोले-भाले लोगों को जोर-शोरसे उपदेश देनेका बढ़िया स्वांग रचाते हैं।
आचार्य गुणभद्र आत्मानुशासन में कहते हैं - जना घनाश्च वाचाला: सुलभाः स्युर्वृथोत्थिताः ।
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