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नहीं दोगे तो हम तुम्हारा धन लुट लेंगे (दंडित करेंगे) या तुम्हें (जाति से) निकाल देंगे । इस प्रकार के डर से डरकर आहार देना आच्छेद्य दोष है । (पृष्ठ ६१)
साधु तो अतिथि अर्थात् तिथियों के बन्धन से मुक्त और अनियत आहारी होते हैं। उनका आहार किस तिथि को किसके घर होगा यह निश्चित करने का समाज को अधिकार नहीं है। आचारसार में कहा है -
वेलादिवसमासतुवर्षादि नियमेन यत् । यतिभ्यो दीनमानान्नं प्राभृतं परिकीर्तितम् ।।८/२८।। अर्थात् - हम मुनियों को अमुक समय पर आहार देंगे, अमुक दिन आहार देंगे आदि प्रकार से कालनिर्धारण करके नियत समय पर जो मुनियों को आहार देना है उसे प्रामृत दोष कहते हैं।
इसलिए यदि दातार पंचायत के द्वारा निर्धारित दिन प्रसन्नता से भी दान देता है, तो भी वह ग्रहण करना मुनियों के लिए दोषकारक ही है।
साधर्मी श्रावकों को धर्ममार्ग में आगे बढ़ते देखकर हमें प्रसन्न होना चाहिए।... दसरी बात यह है कि धर्म में किसी को बंधन नहीं है, आपकी इच्छा है तो द्वारापेक्षण (पड़गाहन) करो । पात्र की वैयावृत्ति (आहारदान) केभाव से ही आपको फल की प्राप्ति हो जाएगी, पात्र मिले या न मिले । (कर्तव्य बोध - पृष्ठ १४-१५)
विघ्न का फल पंचायत की अनुज्ञा के बिना भी आहारदान करने के उद्देश्य से किसी की अपने घर साधुओं का पड़गाहन करने की इच्छा होने पर भी यदि पंचायत, आहार समिति अथवा अन्य कोई उसे रोकता है - मना करता है तो दान करने की उसकी इच्छा में विघ्न करने से रोकने वाले व्यक्ति को तत्त्वार्थसूत्र के
विघ्नकरणमन्तरायस्य ।६/२७/ इस सूत्र के अनुसार अन्तराय कर्म का प्रचुर मात्रा में आस्रव होता है ।
दूसरों के द्वारा किये जा रहें आहारदान की अनुमोदना करने के
बजाय जो उनका किसी भी कारण से विरोध करता है, उस दुर्बुद्धि के लिए आ. वीरसेनस्वामी कहते हैं कि पात्रदान की अनुमोदना से रहित जीव सम्यग्दृष्टि नहीं हो सकते । (धवला पुस्तक १, १/१/८५ - पृष्ठ ३२९) अर्थात् आहारदान का विरोध करनेवाले- किसी का चौका बन्द करने के लिए कहनेवाले लोग स्पष्ट रूप से मिथ्यादृष्टि ही होते हैं तथा उससे उपार्जित पाप के फल से उनको भविष्य में अनेक प्रकार के दुःख भोगने पड़ते हैं रवणसार में कहा भी है -
खय-कुट्ठ-मूल-सूला, लूय-भयंदर-जलोयर-क्खिसिरो ।
सीदुण्ह वाहिराइ, पूया-दाणंतराय-कम्मफलं ।। ३६ ।। अर्थात - क्षयरोग (टी.बी.), कुष्ठरोग, मूल व्याधि, लूता-वातरोग, भगंदर, जलोदर, नेत्र रोग, सिर के रोग, शीत, उष्ण व शीतोष्ण से उत्पन्न सन्निपात पित्तज्वर आदि व्याधियाँ ये सब पूजा-दान आदि धर्म कार्यों में किये गये अन्तराय कर्म का फल है । (पृष्ठ २१-२२)
इतना ही नहीं - जो मूर्ख दान, धर्म, तप, ज्ञान, पूजा आदि में विघ्न करते हैं, वे अवश्य ही नरकों के दुःख भोगते हैं । (प्रश्नोत्तर श्रावकाचार-४/५०) ठीक भी है - जो अन्य लोगों के धर्माचरण में बाधा डालते हैं उन्हे दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य सबके अंतराय कर्म का बंध होता है । (वरांग चरित्र-४/१०३, पृष्ठ ७९)
सम्राट श्रेणिक पूर्वभव में सुमित्र नाम के राजा थे । उस समय उन्होंने सुषेण मुनि का आहार अपने ही घर हो इसलिए सभी नगरवासियों को मुनिराज का पड़गाहन करने से मना कर दिया था । दूसरों को पड़गाहन करने के लिए मना करने से उपार्जित पाप के फल स्वरूप श्रेणिक के भव में उसे सुषेण के जीव कुणिक के द्वारा बन्दीवान् होकर असह्य दुःख भोगने पड़े थे । (श्रेणिक चरित्र)
अत: कभी भी किसी को चौका लगाने से अथवा पड़गाहन करने से मना नहीं करना चाहिए । अपने घर अथवा किसी विशिष्ट व्यक्ति के घर ही साधु का आहार करवाने के लिए भी ऐसी नीच वृत्ति नहीं करनी चाहिए । साधु का आहार किस दिन कहा होगा इसका निर्णय साधु की विधि पर
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