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इसलिए सभी धर्म समान हैं ऐसा मिथ्यात्वपूर्ण प्रचार करने वाले स्वच्छन्द साधुओं की संगति नहीं करनी चाहिए।
मोक्षमार्गप्रकाशक में उद्धृत किया है -
तं जिणआणपरेण य धम्मो सोयव्व सुगुरुपासम्मि । ____ अह उचिओ सद्धाओ तस्सुवएसस्स कहगाओ ।। अर्थ - जो जिनआज्ञा माननेमें सावधान है, उसे निर्ग्रन्थ सुगुरु ही के निकट धर्म सुनना योग्य है, अथवा उन सुगुरु ही के उपदेशको कहनेवाला उचित श्रद्धानी श्रावक हो तो उससे धर्म सुनना योग्य है । (पृष्ठ १७)
समाचारपत्र प्रश्न - समाचारपत्र पढ़ने से दुनिया का ज्ञान होता है । फिर साधुओं को समाचारपत्र क्यों नहीं पढ़ने चाहिये?
समाधान - समाचारपत्र पढ़ने से जो ज्ञान प्राप्त होता है वह सब लौकिक ज्ञान है । उसकी मोक्षमार्ग में कुछ भी आवश्यकता नहीं है। मुनिदीक्षा लौकिक ज्ञान के लिये नहीं अपितु आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिये ली जाती है । इसलिये गणधराचार्य कुन्थुसागर इस विषय में कहते हैं - समाचारपत्र में क्या है ? विकथा है - राष्ट्रकथा, भोजनकथा, स्वीकथा, चोरकथा, इनके अलावा समाचारपत्रों में कुछ नहीं है। ...आचार्यों ने कहा हैं कि पेपर पढ़ने में आपका समय व्यर्थ चला गया । (स्यावाद केसरी - पृष्ठ ३२८)
विहार प्रश्न - जैन साधु विहार कब और कैसे करते हैं ?
समाधान - भगवती आराधना (टीका) में कहा है - सूर्यके प्रकाशका स्पष्ट फैलाव और उसकी व्यापकता उद्योतशुद्धि है। चन्द्रमा, नक्षत्र आदिका प्रकाश अस्पष्ट होता है और दीपक (टॉर्च. गाडी के हेडलाईट) आदिका प्रकाश व्यापक नहीं होता। (जिससे मार्ग में स्थित छोटे-छोटे जीवों को बचाना असम्भव होता है।) (१९८५, पृष्ठ ५९९)
इसलिए मूलाचार प्रदीप में कहा है -
___ अस्तं गते दिवानाथेऽथवा भानुदयावृते ।
विधेय गमनं जातु न सत्सुकार्यराशिषु ।।२७०।।
यतो रात्रौ म्रियन्ते व्रजनेनादृष्टिगोचरे ।
पञ्चाक्षा बहवस्तस्मान्नश्येदाद्यं महाव्रतम् ।।२७१।। अर्थ - यदि कैसा ही और कितना ही श्रेष्ठ कार्य आ जाय; तथापि सूर्य अस्त होनेपर, अथवा सूर्य उदय होने के पहले कभी गमन नहीं करना चाहिये । क्योंकि रात्रिमें गमन करने से दृष्टि के अगोचर ऐसे अनेक पंचेन्द्रिय जीव मर जाते हैं; जिससे अहिंसा महाव्रत सर्वथा नष्ट हो जाता है । (पृष्ठ ४१-४२)
यही कारण हैं कि विगंबर मुनि दिन में ही "पद विहार" करते हैं, रात्रि में नहीं । (कौन कैसे किसे क्या दे ? - पृष्ठ १५)
उन दिगंबर संतों का जब सब प्रकार के परिग्रह का त्याग होता है तब वाहन का प्रश्न ही नहीं उठता और दसरी बात यह है कि वे किसी भी जीव को दुख नहीं देना चाहते । अगर वाहन में सवारी करेंगे तो नीचे जमीन पर चलनेवाले छोटे-छोटे जीव मर जायेंगे - उन जीवों की रक्षा नहीं हो पायेगी । इसीलिये पूर्ण रूप से सभी जीवों की रक्षा करने के उद्देश्य से संत महात्मा जीवन पर्यंत के लिये (किसी भी प्रकार के) वाहन में बैठने का, आने-जाने का त्याग कर देते हैं और फिर जीवन भर पैदल ही विहार करते हैं। (कदम-कदम पर मंजिल (भाग ४)- पृष्ठ २६७)
सब शास्त्रों सार यही है कि साधुओं का पैदल विहार ही जिनसम्मत है। अतः यात्रादिक के व्याज (बहाने) पालकीका आश्रय करनेवाला साधु अपनी ईर्यासमितिको नियमसे खण्डित करता है इसमें संदेह नहीं है। (सम्यक् चारित्र चिन्तामणिः-४/१४-१५, पृष्ठ ४५-४६) इसलिए कितनी भी दूरी तय करना हो, (जैन मुनि) हमेशा पैदल ही चलते हैं। (संत साधना - पृष्ठ ९) क्षुलुक जी भी वाहन का प्रयोग नहीं करते हैं। (पृष्ठ २४)
डोली आदि का विधान तो अत्यावश्यक होने पर किया गया है, वह भी कभी-कभी- हमेशा के लिए नहीं, आपत्तिकाल में अल्प मार्ग तय करने के लिए, लंबे-लंबे विहार और रोज-मर्रा के लिए नहीं । (आचार्य
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कड़वे सच
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