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के अनुसार भी मुनि 'छिण्णणेहबंध' अर्थात् स्त्री-पुत्र, परिवार, मित्र, भक्त आदि में स्नेहरहित होने से उन्हें लोगों को आकर्षित करने की अथवा भक्त जोड़ने की इच्छा ही नहीं होती है। बोगसार प्राभृत में कहा है -
आराधनाय लोकानां मलिनेनान्तरात्मना । क्रियते या क्रिया बालैर्लोकपंक्तिरसी मता ।।८/२०।। अर्थात् - अन्तरात्मा के मलिन होने से मूर्ख लोग जो लोक को रंजायमान करने के लिए क्रिया करते हैं उसे बाल अथवा लोकपंक्ति क्रिया कहते हैं।
भक्त और भीड़ के प्रेमी साधु के लिये परमात्मप्रकाश (टीका) में कहा है -
जो जीव अपने माता, पिता, पुत्र, मित्र, कलत्र इनको छोड़कर दूसरे के घर और पुत्रादिकों में मोह करते हैं, वे भुजाओं से समुद्र को तैरके गायके खुरसे बने हुए गढ़ेके जलमें डुबते हैं। (पृष्ठ २११)
आ. पुष्पदन्तसागर उन्हें सावधानता का इशारा देते हैं - "पर को रिझाने की कोशिश में अपना कही पराया न हो जाये।" (वर्तमान को वर्धमान की आवश्यकता है ...... पृष्ठ ७)
अगर धर्मात्मा बनना है, तो भीड़ से मुक्त होओ । (अमृत कलश - पृष्ठ ९८) क्योंकि भीड़ से घिरा रहना और मेला लगा रहना कोई महान साधुता की निशानी नहीं है।
रे हंसा चल उस पार, उससे ही होगा तेरा बेड़ा पार | गर चाहिये मुक्ति का द्वार, तो मत कर भीड़ बेकार ।।
तत्वार्थवृत्ति में कहा है - कुत्सित राग को बढ़ाने वाला हँसीमजाक करना, बहुत बकने और हँसने की आदत रखना ये हास्यवेदनीय (नामक चारित्रमोहनीय कर्म) के बन्ध के कारण हैं। (६/१४,पृष्ठ ४७८) इसलिए -
भंजसु इंदियसेणं भंजसु मणोमक्कडं पयत्तेण । ___ मा जणरंजणकरणं बाहिरवयवेस तं कुणसु ||भावपाहड ८८।। अर्थात् - हे बाहाव्रतवेष के धारक साधो ! तू लोगों का रंजन करने
वाले कार्य मत कर । (अष्टपाहुड) क्योंकि जो नित्य ही बहजनमें हास्य करते हैं वे (नीच) कन्दर्प देवोंमें उत्पन्न होते हैं । (तिलोय पण्णत्ती-३/ २०२, खण्ड १ - पृष्ठ १३६)
मूलाचार प्रदीप में कहा भी है -
चौराणां बहुदेशानां, मिथ्यादृष्टिकुलिंगिनाम् । अर्थार्जनं विधीनां च, भाषणं वैरिणां भुवि ।।३३४।।
मृषास्मृतिकुशास्त्रादि, पुराणानां च या कथाः ।
विकथास्ता न कर्त्तव्या, न श्रोतव्या अघाकराः ।।३३५।। अर्थ - चोरों की कथा, अनेक देशों की कथा, मिथ्यादृष्टि कुलिंगियों की कथा, धन उपार्जन के कारणों की कथा, शत्रुओं की कथा, मिथ्या स्मृतिशास्त्र, कुशास्त्र, मिथ्या पुराणों की कथायें या पाप उत्पन्न करनेवाली विकथायें कभी नहीं कहनी चाहिये न सुननी चाहिये । (पृष्ठ ५१)
आगे कहते हैंविकथाचारिणां स्वान्य वृथा जन्म विधायनाम् ।
दुर्धियां क्षणमात्रं न संगमिच्छन्ति धीधनाः ।।२४३८।। अर्थात् - जो विकथा कहनेवाले लोग अपना और दूसरों का जन्म व्यर्थ ही खोते हैं, ऐसे मूर्ख लोगों की संगति वे बुद्धिमान मुनिराज एक क्षणभर भी नहीं चाहते हैं। तथा हँसी उत्पन्न करनेवाले दुर्वचन भी कभी नहीं कहते हैं। (पृष्ठ ३७२-३७३)
यतो येन पराहारं गृहीत्वा कुर्वते शठा: ।
चतुर्धा विकथां तेषां वृथा दीक्षाघसंचयात् ।।५६५।। अर्थ - इसका कारण यह है कि जो अज्ञानी मुनि दूसरे का आहार ग्रहण करके भी चारों प्रकार की विकथा में लगे रहते हैं उनकी दीक्षा भी व्यर्थ है, क्योंकि विकथाओं के कहने से उनके निरंतर पापों का संचय होता रहता है। (पृष्ठ ८९)
टीवी, कम्प्युटर आदि मनोरंजन के साधन तो घर-घर में हैं। जिनवाणी की सभा और गुरुचरणों में भी मनोरंजन ही होने लगेगा तो आत्मरंजन कहाँ होगा ? तथा गृहस्थों को भी गुरुजनों के समीप
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