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विपरीत मोबाईल, नॅपकीन, लॅपटॉप, मोटर आदि संसारी लोगों के उपयुक्त सामग्री साधुओं के लिए उपादेय नहीं है यह स्पष्ट हो जाता है। इसलिए -
बालो वा बुड्डो वा समभिहदो वा पुणो गिलोणो वा ।
चरियं चरद सजोग्गं मूलच्छेदो जधा ण हवदि ।।२३०।। भावार्थ - बाल, वृद्ध, श्रान्त व ग्लान मुनि मूलगुणों का जिससे छेद न हो उस प्रकार से अपने पद के योग्य आचरण करते हए शुद्धात्मभावना के साधनभूत प्रासुक आहार, जिनवाणी का ज्ञान व उपकरण आदि का ग्रहण करने रूप मृदु आचरण करना यह अपवाद मार्ग का वास्तविक अर्थ है। इसलिए नीतीसार समुच्चय में भी कहा भी है
पञ्चचेलविनिमुक्त, ग्रन्थमुक्त मता सताम् ।
न ते सुवर्णस्य्यादि, स्पृशन्ति गुरुसंयमाः ।।१५।। टीका: वे निर्ग्रन्थ कभी भी रुपया, सोना, चांदी आदि का स्पर्श नहीं करते । इस श्लोक से गाथा ८६ में कथित 'रिव्यम्पाहरेत' इस पद का भी खुलासा हो जाता है कि वहाँ द्रव्य का अर्थ रुपया-पैसा, सोना-चांदी नहीं है अपितु कमण्डलु, पिच्छी, पुस्तक आदि संयम व ज्ञान के उपकरण से संबोधित पदार्थ है । (नीतिसार समुच्चय - पृष्ठ ८६)
उसी प्रकार"वर्तमान में जितने मुनि हैं, वे सब 'पुलाक मुनि' हैं और पुलाक मुनियों के मूलगुणों की अपूर्णता शास्त्रों में स्वीकृत की गई है। इसलिए परिग्रह रखने पर भी उनके मुनित्व में कोई बाधा नहीं आती" यह तर्क भी भ्रामक ही है । आगम में पुलाक मुनियों के मूलगुणों में अपूर्णता तो स्वीकार की गई है किन्तु वह इस प्रकार है -
"व्रतेष्वपि क्वचित्कदाचित्परिपूर्णतामपरिप्राप्नुवन्तोऽविशुद्धपुलाकसादृश्यात्
पुलाका इत्युच्यन्ते ।" अर्थात - जो (मुनि) कहीं पर और कदाचित व्रतों में भी परिपूर्णता को प्राप्त नहीं होते हैं, वे अविशुद्ध पुलाक के समान होनेसे 'पुलाक' कहे जाते हैं। (सर्वार्थसिद्धि-९/४६/९१०, पृष्ठ ३६३) तथा च -
"पराभियोगाद् बलादन्यतमं प्रतिसेवमानः पुलाको भवति ।"
अर्थात् - दूसरों के दबाववश जबरदस्तीसे पाँच मूलगुण और रात्रिभोजनवर्जन व्रतमेंसे किसी एक की प्रतिसेवना करनेवाला मुनि 'पुलाक' होता है । (९/४७/९१४, पृष्ठ ३६४)
इससे स्पष्ट होता है कि जिनके मूलगुणों की विराधना कभीकभार और वह भी परवश होकर होती है, स्वेच्छा से और सर्वदा नहीं ऐसे मुनि ही पुलाक कहलाते हैं; स्वेच्छा से परिग्रह ग्रहण करनेवाला तो स्वच्छन्द ही हैं । स्वेच्छा प्रवृत्ति का समर्थन करने के लिए आगम का विपरीत अर्थ करनेवाला तो चारित्र के साथ साथ सम्यग्दर्शन से भी हाथ धो बैठता है ।
मूलाचार के अनुसार -
जो जत्थ जहा लद्धं गेण्हदि आहारमवधिमादीयं ।
समणगुणमुक्कजोगी संसार पवडओ होइ ।।९३३।। अर्थात् - जो जहाँ जैसा भी मिला वहाँ वैसा ही आहार, उपकरण आदि ग्रहण कर लेता है, वह मुनि के गुणों से रहित हआ संसार को बढ़ाने वाला है । (उत्तरार्ध पृष्ठ १२९)
इसलिए अपवाद मार्ग का व्याख्यान उसे ही शोभा देता है जो सावध की इच्छा नहीं करता है । क्योंकि अपवाद का ग्रहण भी संसार के त्याग के लिए होता है।
उपकरण प्रश्न - साधु कैसी वस्तुएँ ग्रहण करते हैं ? समाधान - भगवती आराधना (टीका) में कहा हैं -
जो वस्तु ज्ञान और संयम गुणोंका उपकार करती है उसे उपकरण कहते है। जिस उपकरणसे संयमकी साधना होती है वह उपकरण कमण्डलु
और पीछी मात्र है। उनको छोड़कर अन्य वस्तएँ संयमकी साधक नहीं होनेसे उपकरण नहीं है। यहाँ तक कि दूसरी पीछी, दूसरा कमण्डल भी उस समय संयमका साधक नहीं होनेसे उपकरण नहीं है। (पृष्ठ २१०) तब उनसे अन्य तेल, नॅपकीन, मोबाईल, नेल-कटर, कम्प्युटर, मोटर, एक से अधिक मालाएँ आदि वस्तुएँ स्पष्टत: उपकरण नहीं कही जा सकती।
अतः जो वस्तु ज्ञान और संयम में से एककी साधन है, .... कड़वे सच . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . -३४ -
- कड़वे सच ...
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