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________________ अनाथी मुनि धारण किये हुए है ! अहो ! इसकी भोगकी निःसंगता कितनी सुदृढ है !' यों चिंतन करते-करते, मुदित होते-होते, स्तुति करते-करते, धीरेसे चलते-चलते, प्रदक्षिणा देकर उस मुनिको वंदन करके, न अति समीप और न अति दूर वह बैठा। फिर अंजलिबद्ध होकर विनयसे उसने मुनिको पूछा- "हे आर्य! आप प्रशंसा करने योग्य तरुण हैं; भोगविलासके लिए आपकी वय अनुकूल है; संसारमें नाना प्रकारके सुख हैं; ऋतु-ऋतुके कामभोग, जलसंबंधी कामभोग, तथा मनोहारिणी स्त्रियोंके मुखवचनोंका मधुर श्रवण होने पर भी इन सबका त्याग करके मुनित्वमें आप महान उद्यम कर रहे हैं, इसका क्या कारण? यह मुझे अनुग्रहसे कहिये।" राजाके ऐसे वचन सुनकर मुनिने कहा, "मैं अनाथ था। हे महाराजा ! मुझे अपूर्व वस्तुको प्राप्त करानेवाला तथा योगक्षेमका करनेवाला, मुझपर अनुकंपा लानेवाला, करुणा करके परम सुखका देनेवाला सुहृत्-मित्र लेशमात्र भी कोई न हुआ। यह कारण मेरी अनाथताका था।" श्रेणिक, मुनिके भाषणसे मुस्कराया। “अरे! आप जैसे महान ऋद्धिमानको नाथ क्यों न हो? लीजिये, कोई नाथ नहीं है तो मैं होता हूँ। हे भयत्राण ! आप भोग भोगिये । हे संयति ! मित्र ! जातिसे दुर्लभ ऐसे अपने मनुष्य-भवको सफल कीजिये।" अनाथीने कहा-“परन्तु अरे श्रेणिक, मगधदेशके राजन् ! तू स्वयं अनाथ है तो मेरा नाथ क्या होगा? निर्धन धनाढ्य कहाँसे बना सके ? अबुध बुद्धिदान कहाँसे दे सके ? अज्ञ विद्वत्ता कहाँसे दे सके ? वंध्या संतान कहाँसे दे सके ? जब तू स्वयं अनाथ है, तब मेरा नाथ कहाँसे होगा?" मुनिके वचनोंसे राजा अति आकुल और अति विस्मित हुआ। जिन वचनोंका कभी श्रवण नहीं हुआ, उन वचनोंका यतिमुखसे श्रवण होनेसे वह शंकाग्रस्त हुआ और बोला-“मैं अनेक प्रकारके अधोंका भोगी हूँ, अनेक प्रकारके मदोन्मत्त हाथियोंका धनी हूँ, अनेक प्रकारकी सेना मेरे अधीन हैं; नगर, ग्राम, अंत:पुर, तथा चतुष्पादकी मेरे कोई न्यूनता नहीं है; मनुष्यसम्बन्धी सभी प्रकारके भोग मुझे प्राप्त हैं; अनुचर मेरी आज्ञाका भलीभाँति पालन करते हैं; पाँचों प्रकारकी संपत्ति मेरे घरमें है; सर्व मनोवांछित वस्तुएँ मेरे पास रहती हैं। ऐसा मैं जाज्वल्यमान होते हुए भी अनाथ कैसे हो सकता हूँ? कहीं हे भगवन् ! आप मृषा बोलते हों।" मुनिने कहा-"हे राजन ! मेरे कहे हुए अर्थकी उपपत्तिको तुने ठीक नहीं समझा। तु स्वयं अनाथ है, परन्तु तत्सम्बन्धी तेरी अज्ञता है। अब मैं जो कहता हूँ उसे अव्यग्र एवं सावधान चित्तसे तू सुन, सुनकर फिर अपनी शंकाके सत्यासत्यका निर्णय करना । मैंने स्वयं जिस अनाथतासे मुनित्वको अंगीकृत किया है उसे मैं प्रथम तुझे कहता हूँ कौशाम्बी नामकी अति प्राचीन और विविध प्रकारके भेदोंको उत्पन्न करनेवाली एक सुन्दर नगरी थी। वहाँ ऋद्धिसे परिपूर्ण धनसंचय नामके मेरे पिता रहते थे। प्रथम यौवनावस्थामें हे महाराजा ! मेरी आँखोंमें अतुल्य एवं उपमारहित वेदना उत्पन्न हुई। दुःखप्रद दाहज्वर सारे शरीरमें प्रवर्तमान हुआ। शस्त्रसे भी अतिशय तीक्ष्ण वह रोग वैरीकी भाँति मुझपर कोपायमान हुआ। आँखोंकी उस असह्य वेदनासे मेरा मस्तक दुखने लगा । इन्द्रके वज्रके प्रहार सरीखी,
SR No.009959
Book TitleDrusthant Katha
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year
Total Pages67
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size17 MB
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