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________________ भावनाबोध - अनित्यभावना होता हुआ नगरके बाहर आया। आकर एक वृक्षके नीचे बैठा। वहाँ जरा सफाई करके उसने एक ओर अपना बहुत पुराना पानीका घडा रख दिया, एक ओर अपनी फटी पुरानी मलिन गुदडी रखी और फिर एक ओर वह स्वयं उस भोजनको लेकर बैठा। खुशी-खुशीसे उसने कभी न देखे हुए भोजनको खाकर पूरा किया। भोजनको स्वधाम पहुँचानेके बाद सिरहाने एक पत्थर रखकर वह सो गया। भोजनके मदसे जरासी देरमें उसकी आँखें मिच गयीं। वह निद्रावश हुआ कि इतनेमें उसे एक स्वप्न आया। मानो वह स्वयं महा राजऋद्धिको प्राप्त हुआ है, इसलिए उसने सुन्दर वस्त्राभूषण धारण किये हैं, सारे देशमें उसकी विजयका डंका बज गया है, समीपमें उसकी आज्ञाका पालन करनेके लिए अनुचर खडे हैं, आसपास छडीदार "खमा ! खमा !" पुकार रहे हैं, एक उत्तम महालयमें सुन्दर पलंगपर उसने शयन किया है, देवांगना जैसी स्त्रियाँ उसकी पाँव-चप्पी कर रही हैं, एक ओरसे मनुष्य पंखेसे सुगन्धी पवन कर रहे हैं, इस प्रकार उसने अपूर्व सुखकी प्राप्तिवाला स्वप्न देखा । स्वप्नावस्थामें उसके रोमांच उल्लसित हो गये। वह मानो स्वयं सचमुच वैसा सुख भोग रहा है ऐसा वह मानने लगा। इतनेमें सूर्यदेव बादलोंसे ढंक गया, बिजली कौंधने लगी, मेघमहाराज चढ आये, सर्वत्र अँधेरा छा गया, मूसलधार वर्षा होगी ऐसा दृश्य हो गया, और घनगर्जनाके साथ बिजलीका एक प्रबल कडाका हुआ। कडाकेकी प्रबल आवाजसे भयभीत हो वह पामर भिखारी शीघ्र जाग उठा। जागकर देखता है तो न है वह देश कि न है वह नगरी, न है वह महालय किन है वह पलंग, न हैं वे चामरछत्रधारी कि न हैं वे छडीदार, न है वह स्त्रीवृन्द कि न हैं वे वस्त्रालंकार, न हैं वे पंखे कि न है वह पवन, न हैं वे अनुचर कि न है वह आज्ञा, न है वह सुखविलास कि न है वह मदोन्मत्तता। देखता है तो जिस जगह पानीका पुराना घडा पडा था उसी जगह वह पडा है, जिस जगह फटी-पुरानी गुदडी पडी थी उसी जगह वह फटी-पुरानी गुदडी पडी है। महाशय तो जैसे थे वैसेके वैसे दिखायी दिये। स्वयं जैसे मलिन और अनेक जाली-झरोखेवाले वस्त्र पहन रखे थे वैसेके वैसे वही वस्त्र शरीरपर विराजते हैं। न तिलभर घटा कि न रत्तीभर बढा। यह सब देखकर वह अति शोकको प्राप्त हुआ। 'जिस सुखाडंबरसे मैंने आनन्द माना, उस सुखमेंसे तो यहाँ कुछ भी नहीं है। अरे रे ! मैंने स्वप्नके भोग तो भोगे नहीं और मुझे मिथ्या खेद प्राप्त हुआ।' इस प्रकार वह बिचारा भिखारी ग्लानिमें आ पड़ा। प्रमाणशिक्षा-स्वप्नमें जैसे उस भिखारीने सुखसमुदायको देखा, भोगा और आनन्द माना, वैसे पामर प्राणी संसारके स्वप्नवत् सुखसमुदायको महानन्दरूप मान बैठे हैं। जैसे वह सुखसमुदाय जागृतिमें उस भिखारीको मिथ्या प्रतीत हुआ, वैसे तत्त्वज्ञानरूपी जागृतिसे संसारके सुख मिथ्या प्रतीत होते हैं। स्वप्नके भोग न भोगे जानेपर भी जैसे उस भिखारीको शोककी प्राप्ति हुई, वैसे पामर भव्य जीव संसारमें सुख मान बैठते हैं, और भोगे हुएके तुल्य मानते हैं, परन्तु उस भिखारीकी भाँति परिणाममें खेद, पश्चात्ताप और अधोगतिको प्राप्त होते हैं। जैसे स्वप्नकी एक भी वस्तुका सत्यत्व नहीं हैं, वैसे संसारकी एक भी वस्तुका सत्यत्व नहीं है। दोनों चपल और
SR No.009959
Book TitleDrusthant Katha
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year
Total Pages67
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size17 MB
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