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________________ आस्रवभावना - कुंडरिक उन महाज्ञानी युवराज मृगापुत्रने प्रधान मोक्षगतिमें गमन किया। प्रमाणशिक्षा-तत्त्वज्ञानियों द्वारा सप्रमाण सिद्ध की हुई द्वादश भावनाओंमेंसे संसार भावनाको दृढ करनेके लिए मृगापुत्रके चरित्रका यहाँ वर्णन किया है। संसाराटवीमें परिभ्रमण करते हुए अनन्त दुःख है, यह विवेकसिद्ध है; और इसमें भी, निमेषमात्र भी जिसमें सुख नहीं है ऐसी नरकाधोगतिके अनन्त दु:खोंका वर्णन युवज्ञानी योगींद्र मृगापुत्रने अपने मातापिताके समक्ष किया है, वह केवल संसारसे मुक्त होनेका विरागी उपदेश प्रदर्शित करता है। आत्मचारित्रको धारण करने में तफ्-परिषहादिके बहिर्दुःखको दुःख माना है, और महाधोगतिके परिभ्रमणरूप अनन्त दुःखको बहिर्भाव मोहिनीसे सुख माना है, यह देखो, कैसी भ्रमविचित्रता है ? आत्मचारित्रका दुःख दुःख नहीं परन्तु परम सुख है, और परिणाममें अनन्त सुखतरंगकी प्राप्तिका कारण है; और भोगविलासादिका सुख जो क्षणिक एवं बहिर्दृष्ट सुख है वह केवल दुःख ही है, और परिणाममें अनन्त दुःखका कारण है, इसे सप्रमाण सिद्ध करनेके लिए महाज्ञानी मृगापुत्रका वैराग्य यहाँ प्रदर्शित किया है। इन महाप्रभावक, महायशस्वी मृगापुत्रकी भाँति जो तपादिक और आत्म-चारित्रादिक शुद्धाचरण करता है, वह उत्तम साधु त्रिलोकमें प्रसिद्ध और प्रधान परमसिद्धिदायक सिद्धगतिको पाता है। संसारममत्वको दु:खवृद्धिरूप मानकर तत्त्वज्ञानी इन मृगापुत्रकी भाँति परम सुख और परमानंदके लिए ज्ञानदर्शनचारित्ररूप दिव्य चिंतामणिकी आराधना करते हैं। महर्षि मृगापुत्रका सर्वोत्तम चरित्र (संसारभावनारूपसे) संसार-परिभ्रमणकी निवृत्तिका और उसके साथ अनेक प्रकारकी निवृत्तिका उपदेश देता है। इस परसे अंतर्दर्शनका नाम निवृत्तिबोध रखकर आत्मचारित्रकी उत्तमताका वर्णन करते हुए मृगापुत्रका यह चरित्र यहाँ पूर्ण होता है। तत्त्वज्ञानी संसार-परिभ्रमणनिवृत्ति और सावधउपकरणनिवृत्तिका पवित्र विचार निरंतर करते हैं। इति अंतर्दर्शनके संसारभावनारूप छठे चित्रमें मृगापुत्रचरित्र समाप्त हुआ। सप्तम चित्र आस्रवभावना द्वादश अविरति, षोडश कषाय, नव नोकषाय, पंच मिथ्यात्व, और पंचदश योग यह सब मिलकर सत्तावन आस्रक्-द्वार अर्थात् पापके प्रवेश करनेके प्रणाल हैं। कुंडरिक दृष्टान्त : महाविदेहमें विशाल पुंडरीकिणी नगरीके राज्य सिंहासन पर पुंडरीक और कुंडरीक नामके दो भाई आरूढ थे। एक बार वहाँ महातत्त्वज्ञानी मुनिराज विहार करते हुए आये। मुनिके वैराग्य वचनामृतसे कुंडरीक दीक्षानुरक्त हुआ और घर आनेके बाद पुंडरीकको राज्य सोंपकर चारित्र अंगीकार किया। सरस-नीरस आहार करनेसे थोडे समयमें वह रोगग्रस्त २९
SR No.009959
Book TitleDrusthant Katha
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year
Total Pages67
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size17 MB
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