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________________ भावनाबोध- अन्यत्वभावना हुआ। शोभाहीन लगनेका कारण मात्र अंगूठी नहीं, यही ठहरा न? यदि अंगूठी होती तब तो ऐसी अशोभा मैं न देखता। इस मुद्रिकासे मेरी यह उँगली शोभाको प्राप्त हुई; इस उँगलीसे यह हाथ शोभा पाता है और इस हाथसे यह शरीर शोभा पाता है। तब इसमें मैं किसकी शोभा मानूं? अति विस्मयता ! मेरी इस मानी जानेवाली मनोहर कांतिको विशेष दीप्त करनेवाले ये मणिमाणिक्यादिके अलंकार और रंग-बिरंगे वस्त्र ठहरे। यह कांति मेरी त्वचाकी शोभा ठहरी । यह त्वचा शरीरकी गुप्तताको ढंककर उसे सुन्दर दिखाती है। अहोहो! यह महाविपरीतता है ! जिस शरीरको मैं अपना मानता हूँ, वह शरीर मात्र त्वचासे, वह त्वचा कांतिसे और वह कांति वस्त्रालंकारसे शोभा पाती है। तो फिर क्या मेरे शरीरकी तो कुछ शोभा ही नहीं न? रुधिर, मांस और हड्डियोंका ही केवल यह ढाँचा है क्या? और इस ढाँचेको मैं सर्वथा अपना मानता हूँ। कैसी भूल ! कैसी भ्रांति ! और कैसी विचित्रता है ! मै केवल पर-पुद्गलकी शोभासे शोभित होता हूँ। किसीसे रमणीयता धारण करनेवाले इस शरीरको मैं अपना कैसे मानूँ ? और कदाचित् ऐसा मानकर मैं इसमें ममत्वभाव रखू तो वह भी केवल दुःखप्रद और वृथा है। इस मेरे आत्माका इस शरीरसे एक समय वियोग होनेवाला है ! आत्मा जब दूसरी देहको धारण करनेके लिए जायेगा तब इस देहके यहीं रहनेमें कोई शंका नहीं है। यह काया मेरी न हुई और न होगी तो फिर मैं इसे अपनी मानता हूँ या मानें, यह केवल मूर्खता है। जिसका एक समय वियोग होनेवाला है, और जो केवल अन्यत्वभाव रखती है उसमें ममत्वभाव क्या रखना? यह जब मेरी नहीं होती तब मुझे इसका होना क्या उचित है ? नहीं, नहीं, यह जब मेरी नहीं तब मैं इसका नहीं, ऐसा विचार करूँ, दृढ करूँ, और प्रवर्तन करूँ, यह विवेकबुद्धिका तात्पर्य है। यह सारी सृष्टि अनंत वस्तुओंसे और पदार्थों से भरी हुई है; उन सब पदार्थों की अपेक्षा जिसके जितनी किसी भी वस्तुपर मेरी प्रीति नहीं है, वह वस्तु भी मेरी न हुई, तो फिर दूसरी कौनसी वस्तु मेरी होगी? अहो ! मैं बहुत भूल गया। मिथ्या मोहमें फँस गया। वे नवयौवनाएँ, वे माने हुए कुलदीपक पुत्र, वह अतुल लक्ष्मी, वह छ खंडका महान राज्य, ये मेरे नहीं हैं। इनमेंसे लेशमात्र भी मेरा नहीं है। इनमें मेरा किंचित् भाग नहीं है। जिस कायासे मैं इन सब वस्तुओंका उपभोग करता हूँ, वह भोग्य वस्तु जब मेरी न हुई तब अपनी मानी हुई अन्य वस्तुएँ-स्नेही, कुटुम्बी इत्यादि-क्या मेरी होनेवाली थीं? नहीं, कुछ भी नहीं। यह ममत्वभाव मुझे नहीं चाहिए ! ये पुत्र, ये मित्र, ये कलत्र, यह वैभव और यह लक्ष्मी, इन्हें मुझे अपना मानना ही नहीं है ! मैं इनका नहीं और ये मेरे नहीं ! पुण्यादिको साधकर मैंने जो जो वस्तुएँ प्राप्त की वे वस्तुएँ मेरी न हुई, इसके जैसा संसारमें क्या खेदमय है ? मेरे उग्र पुण्यत्वका परिणाम यही न? अंतमें इन सबका वियोग ही न? पुण्यत्वका यह फल प्राप्त कर इसकी वृद्धिके लिए मैंने जो जो पाप किये वह सब मेरे आत्माको ही भोगना है न? और वह अकेले ही न? इसमें कोई सहभोक्ता नहीं ही न? नहीं नहीं। इन अन्यत्वभाववालोंके लिए ममत्वभाव दिखाकर आत्माका अहितैषी होकर मैं इसे रौद्र नरकका भोक्ता बनाऊँ इसके जैसा कौनसा अज्ञान है ? ऐसी कौनसी भ्रांति है ? ऐसा कौनसा अविवेक है? त्रेसठ शलाकापुरुषों में मैं एक गिना गया; फिर भी मैं ऐसे कृत्यको दूर न कर सकूँ और प्राप्त १६
SR No.009959
Book TitleDrusthant Katha
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year
Total Pages67
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size17 MB
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