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________________ (२) विणय (विनय) प्रस्तावना : भारतीय परंपरा में विनय शब्द दो अर्थों से प्रयुक्त किया जाता है । 'वि+नम्' क्रियापद से बना हुआ यह नाम नम्रता याने modesty का द्योतक है । विनय का दूसरा अर्थ शिक्षा याने knowledge या education भी है । गुरुकुल परंपरा में नम्रता के बिना गुरू से शिक्षा पायी नहीं जा सकती थी । इसी वजह से बहुत बार शिष्य को 'विनेय'भी कहा है । नम्रता और शिक्षा एक ही सिक्के के दो पहलू बताकर भारतीय संस्कृति ने एक अपूर्व आदर्श ही प्रस्तुतकिया है भावार्थ स्पष्टीकरण : (१) एवं धम्मस्स विणओ मूलं --- दशवैकालिक सूत्र के नौवें अध्ययन का नाम 'विनयसमाधि' है । शय्यंभव आचार्य ने अपने अल्पायुषि पुत्र 'मणग' को जिन-जिन विषयों के सरल उपदेश दिये, उनमें एक महत्त्वपूर्ण विषय है ‘विनय' । विनय की महत्ता इससे सद्ध होती है । उत्तराध्ययनसूत्र का पहला अध्ययन भी ‘विनयश्रुत' ही है । भ. महावीर ने भी नवदीक्षित साधु को उपदेश देने का प्रारंभ विनय से ही किया है । इस गाथा में जो पदावलि प्रयुक्त की है, उससे यह स्पष्ट होता है कि यहाँ धर्म को वृक्ष की उपमा दी है । जिस प्रकार जमीन में सुदूर तक पहुँचे हुए मूल पोषक तत्त्व लेकर पूरे वृक्ष में फैलाते हैं, उसी प्रकार विनीत वृत्ति के कारण अनेक धर्मानुकूल गुणों का पोषण होता है । कीर्ति और श्रुत याने ज्ञान ये दोनों मानों धर्मवृक्ष के तना, शाखाएँ एवं पल्लव है । अगर मूल और तना सुदृढ हो तो धर्मरूपी वृक्ष पर रूप, रस, गंध से भरा हुआ अच्छा खासा फल भीलगता है । गाथा में इस फल को ही मोक्ष कहा है । धर्मरूपी वृक्ष के मोक्षफल का पहला सुदृढ आधार मूल याने विनय ही है । (२) विणओ मोक्खद्दारं --- __ भगवती आराधना आ. शिवकोटिद्वारा रचित एक प्राचीन दिगंबर ग्रंथ है । वह शौरसेनी नाम की प्राकृत भाषा में निबद्ध है । उसके आरंभ में चार प्रकार की आराधनाओं का निर्देश है । जैनधर्म में वारंवार उल्लिखित ज्ञान,दर्शन, चारित्र और तप ये चारों आराधनाएँ हैं । इस गाथा में यद्यपि प्रासाद (palace) का रूपक स्पष्टत: से नहीं दिया है तथापि गाथा में यही रूपक अंतर्भूत है । धर्मरूपी प्रासाद के ये चार परकोटे हैं । हर एक का अलग-अलग प्रवेशद्वार है और वहाँ जागृत रक्षक भीमौजूद साद का महाद्वार कितना भी बड़ा हो, व्यक्ति को अंदर पहँचानेवाला दरवाजा छोटा ही होता है। धर्मप्रासाद में प्रवेश करने के इच्छुक व्यक्ति ने छोटे दरवाजे से झुककर अंदर जाना अपेक्षित है । इसलिए उस दरवाजे कानाम भी 'विनयद्वार' है । आगे जाकर इसी विनय के सहारे संयम, तप और ज्ञान में धीरे-धीरे प्रवेश होता है । राजनीति में चाहे साम-दाम-दंड-भेद चारों उपाय मौजूद है लेकिन यहाँ केवल सामोपचार याने विनय का ही एक पर्याय उपलब्ध है। शिक्षा दोनों से मिलती है - आचार्यों से और चतुर्विध संघ से । इसलिए आचार्य के प्रति भी विनीत वृत्ति अपेक्षत है और संघ के प्रति भी विनयाचार अपेक्षित है । धन, कीर्ति, अहंकार आदि बाहर छोडकर ही धर्मरूपी प्रासाद में, विनयरूपी द्वार से प्रवेश किया जा सकता है । (३) कित्ती मेत्ती --- यह गाथा भी 'भगवती आराधना' ग्रंथ से ही चयनित की है । इसका भावार्थ यह है कि विनय यह मूलगामी गुण
SR No.009953
Book TitleJainology Parichaya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNalini Joshi
PublisherSanmati Tirth Prakashan Pune
Publication Year2010
Total Pages41
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size275 KB
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