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तृतीय खण्ड।
[३७ भावार्थ-केशोंका लोच दो मासमें करना उत्कृष्ठ है, तीन मासमें करना मध्यम है, चार मासमें करना जघन्य है । प्रतिक्रमण सहित लोच करना चाहिये अर्थात् लोच करके प्रतिक्रमण करना चाहिये और उस दिन अवश्य उपवास करना चाहिये। मूलाचारकी वसुनंदि सिद्धांत चक्रवर्तीकत संस्कृतवृत्तिसे यह भाव झलकता है कि दो मासके पूर्ण होनेपर उत्कृष्ट है, तीन मास पूर्ण हों व न पूर्ण हों तब करना मध्यम है, तथा चार मास अपूर्ण हों व पूर्ण हों तब करना जघन्य है । नाधिकेषु शब्द कहता है कि इससे अधिक समय विना लोच न रहना चाहिये। दो मासके पहले भी लोच नहीं करना चाहिए वैसे ही चार माससे अधिक बिना "लोच नहीं रहना चाहिये। लोच शब्दकी व्याख्या इस तरह हैलोचः बालोत्पाटनं हस्तेन मस्तककेशश्मश्नुणामपनयनं जीवसम्मूर्छनादिपरिहारार्थ रागादिनिराकरणाथ स्ववीर्यप्रकटनाथं सर्वोत्कृष्टतपश्चरणार्थ लिंगादिगुणज्ञापनार्थ चेति ” ।
• भावार्थ:-हाथसे वालोंको उखाडना लोच है। मस्तकके केश व डाढ़ी मूछके केशोंको दूर करना चाहिये जिसके लिये ९ हेतु हैं(१) सन्सूर्छन विकलत्रय आदि जीवोंकी उत्पत्ति बचानेके लिये (२) रागादि भावोंको दूर करनेके लिये (३) आत्मबलके प्रकाशके लिये (४) सर्वसे उत्कृष्ट तपस्या करनेके लिये (५) मुनिपनेके लिंगको 'प्रगट करनेके लिये । छरी आदिसे लोच न कराके हाथोंसे क्यों करते हैं इसके लिये लिखा है " दैन्यवृत्तियाचनपरिग्रहपरिभवादिदोषपरित्यागात् " अर्थात् दीनतापना, याचना, ममता व लज्जित होने आदि दोषोंको त्याग करनेके लिये ।