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तृतीय खण्ड।
[३५५ ' वर्तना चाहिये, जिससे प्राणियोंकी हिंसा न हो । जो यत्नसे व्यव
हार करनेपर कदाचित कोई प्राणीका घात हो भी जावे तो भी अप्रमादीको हिंसाका दोष नहीं होता है, परंतु जो यत्नवान नहीं है और प्रमादी है तो वह निरंतर हिंसामई भावसे न बचनेकी अपेक्षा हिंसाका भागी होता है। रागादि भाव ही हिंसा है। इसीसे ही कर्मबंध होता है। जो साधु किंचित् भी ममता परंद्रव्योंमें रखता है तथा शरीरकी ममता करके थोड़ा भी वस्त्रादि धारण करता है तो वह अहिंसा महाव्रतका पालनेवाला नहीं होता है । इसलिये साधुको ऐसा व्यवहार पालना चाहिये जिससे अपने चारित्रका छेद न हो। साधुको चारित्रमें उपकारी पीछी, कमंडलु अथवा शास्त्रके सिवाय और परिग्रहको नहीं रखना चाहिये। .
फिर दिखलाया है कि मुनिमार्ग तो शुद्धोपयोग रूप है। यही उत्सर्गमार्ग है । आहार विहार धर्मोपदेश करना आदि सर्व व्यवहार चारित्र है यह अपवाद मार्ग है । अपवाद मागमें भी नग्न रूपता अत्यन्त आवश्यक साधन है । विना इसके अहिंसा महाव्रत आदिका व ध्यानका योग्य साधन नहीं हो सक्ता है, क्योंकि स्त्रियां प्रमाद व लज्जाकी विशेषता होनेसे नग्नपना नहीं धार सक्ती हैं इससे उनके मुनिपद नहीं होसक्ता है और इसीलिये ये उस स्त्री पर्यायसे मोक्षगामिनी नहीं हो सक्ती हैं।
मुनि महाराज यद्यपि शरीररूपी परिग्रहका त्याग नहीं कर सक्ने तथापि उसकी ममता त्याग देते हैं। उस शरीरको मात्र संयमके लिये योग्य आहार विहार कराकर व शास्त्रोक्त आचरण