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तृतीय खण्ड। उनके शिष्य अनेक गुणोंके धारी आचार्य श्री सोमसेन हुए। उनका शिप्य यह-जयसेन तपखी हुआ । सदा धर्ममें रत प्रसिद्ध मालू साधु नामके हुए हैं। उनका पुत्र साधु महीपतिहुआ है,उनसे यह चारुभट नामका पुत्र उपना है, जो सर्वज्ञान प्राप्तकर सदा आचायोंके चरणोंकी आराधना पूर्वक सेवा करता है, उस चारुभट अर्थात् जयसेनाचार्यने जो अपने पिताकी भक्तिके विलोप करनेसे भयभीत था इस प्राभृत नाम मन्थकी टीका की है। श्रीमान् त्रिभुवनचन्द्र गुरुको नमस्कार करता हूं, जो आत्माके भावरूपी जलको बढ़ानेके लिये चंद्रमाके तुल्य हैं और कामदेव नामके प्रबल महापर्वतके सैकडों टुकड़े करनेवाले हैं । मैं श्री त्रिभुवनचंद्रको नमस्कार करता हूं । जो जगतके सर्व संसारी जीवोंके निष्कारण बन्धु हैं और गुण रूपी रत्नोंके समुद्र हैं। फिर मैं महा संयमके पालनेमें श्रेष्ठ चंद्रमातुल्य श्री त्रिभुवनचन्द्रको नमस्कार करता हूं जिसके उदयसे जगतके प्राणियोंके अन्तरंगका अन्धकार समूह नष्ट होजाता है |
॥ इति प्रशस्ति ॥