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तृतीय खण्ड। .. [३५१ समाधिसे उत्पन्न जो रागादिकी उपाधिसे रहित परमानन्दमई सुखामृत रस उसके खादके अनुभवके लाभ होते हुए जैसे अमावसके दिन समुद्र जलकी तरंगोंसे रहित निश्चल क्षोभरहित होता है इस तरह राग, द्वेष, मोहकी कलोलोंके क्षोभसे रहित होकर जैसा जैसा अपने शुद्ध आत्मस्वरूपमें स्थिर होता जाता है तैसा तैसा उसी ही अपने शुद्धात्मस्वरूपको प्राप्त करता जाता है।
भावार्थ-भव्य जीवको उचित है कि प्रथम आत्माको भले प्रकार नय प्रमाणोंसे निश्चय कर ले फिर व्यवहार रत्नत्रयके आलम्बनसे निश्चयरत्नत्रयमई आत्मस्वभावका अनुभव करे । वस यही' स्वात्मानुभव आत्माके वन्धनोंको काटता चला जायगा और यह आत्मा शुद्धताको प्राप्त करते करते एक समय पूर्ण शुद्ध परमात्मा हो जायेगा।
___इस तरह श्री जयसेन आचार्यकृत'तात्पर्य्यवृत्तिमें पूर्वमें कहे कमसे "एस सुरासुर " इत्यादि एकसौएक गाथाओं तक पम्य. ग्ज्ञानका अधिकार कहा गया । फिर "तम्हा तस्स णमाई" इत्यादि एकसौ तेरह गाथाओं तक शेष कार या सम्यग्दर्शन नामका अधिकार कहा गया । फिर "तब मिद्धे णयसिद्ध" इत्यादि सत्तानवें गाथा तक चारित्रका अधिकार कहा गया । इस तरह तीन महा अधिकारों के द्वारा तीनसौ ग्यारह गाथाओसे यह प्रवचनसार प्राभृत पूर्ण किया गया ।
इस तरह श्री समयसारको तात्पर्यवत्ति टीका समाप्त हुई।
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