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तृतीय खण्डं ।
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विशेषार्थ - जो शुद्धोपयोगका धारक साधु है उसीके ही सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यग्चारित्रकी एकतारूप तथा शत्रु मित्र आदिमें समभावकी परिणतिरूप साक्षात मोक्षका मार्ग श्रमणपना कहा गया है। शुद्धोपयोगी ही तीनलोक के भीतर रहनेवाले व तीन कालवर्ती सर्व पदार्थों के भीतर प्राप्त जो अनन्त स्वभाव उनको एक समयमें विना क्रमके सामान्य तथा विशेष रूप जानेको समर्थ अनन्तदर्शन व अनन्तज्ञान होते हैं, तथा शुद्धोपयोगी ही वाधा रहित अनन्त सुख आदि गुणोंका आधारभूत पराधीनतासे रहित स्वाधीन निर्वाणका लाभ होता है । जो शुद्धोपयोगी है वही लौकिक माया, अंजन, रस, दिग्विजय, मंत्र, यंत्र आदि सिद्धियोंसे विलक्षण, अपने शुद्ध आत्माकी प्राप्तिरूप, टांकी में उकेरेके समान मात्र ज्ञायक एक खभावरूप तथा ज्ञानावरणादि आठ 'विध कर्मोंसे रहित होने के कारण से सम्यक्त्व आदि आठगुणों में गर्भित अनंत गुण सहित सिद्ध भगवान हो जाता है। इसलिये उसी ही शुद्धोपयोगीको निर्दोष निज परमात्मामें ही आराध्य आराधक संबंध रूप भाव नमस्कार होहु । भाव यह कहा गया है कि इस मोक्षके कारणभूत शुद्धोपयोग ही द्वारा सर्व इष्ट मनोरथ प्राप्त होते हैं । ऐसा मानकर शेष सर्व मनोरथको त्यागकर इसी शुद्धोपयोगकी ही भावना करनी योग्य है ।
भावार्थ - इस गाथा में आचार्यने उसी शुद्धोपयोगरूप समता भावको स्मरण किया है जिसमें उन्होंने ग्रन्थके प्रारम्भके समय अपना आश्रय रखनेकी प्रतिज्ञा की थी । तथा यह भी बता दिया है जैसा कार्य होता है वैसा ही कारण होना चाहिये । आत्माका