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तृतीय खण्ड |
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आयारादीणाणं जीवादीदंसणं च विष्णेयं । छजोवाणं रक्खा भणदि चरितं तु ववहारो ॥ २६४ ॥ आदा खु मज्झणाणे आदा मे दंसणे चरिते य । आदा पञ्चखाणे आदा मे संवरे जोगे ॥ २६५ ॥
. भावार्थ-व्यवहार नयसे आचारङ्ग आदि शास्त्रोंको जानना सम्यग्ज्ञान है, जीवादि तत्त्वोंका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन हैं, तथा छः कायके प्राणियोंकी रक्षा करना सम्यम्चारित्र है ये व्यवहार रत्नत्रय हैं । निश्चय नयसे एक आत्मा ही मेरे ज्ञानमें है, वही आत्मा मेरे सम्यग्दर्शनमें है वही चारित्रमें है वही आत्मा त्याग में है. वही संवरमें और वही ध्यान में है अर्थात् व्यवहार रत्नत्रयसे युक्त होकर जो निज आत्मा शुद्ध स्वभावमें लय होजाता है वही. निश्चय रत्नत्रयमई मोक्षमार्गका आराधन करता हुआ मोक्षमार्गका सच्चा साधनेवाला होता है ।
श्री मूलाचार समयसार अधिकार में कहा है:---- भावविरदो दु विरदो ण दव्यविरदस्त सुगाई होई । : विसयवणरमणलोलो धरियचो तेण मणहत्थी ॥ १०४ ॥ भावार्थ- जो साधु भाव वैरागी हैं वे ही सच्चे विरक्त हैं। जो बाहरी मात्र त्यागी हैं उनके मोक्षकी प्राप्ति नहीं होसक्ती । इस लिये पांचों इंद्रियोंके विषयोंके वनमें रमन करनेमें लोलुपी मनरूपी हाथीको वशमें रखना योग्य है ।
श्री-मूलाचार अनगार भावनामें कहा है :--
: णिविकरणचरणा कम्मं णिदुदुदं धुणिन्ताय । जरमरणचिप्पमुक्का उवेंति सिद्धि धुर्दाकलेसा ॥ ११६ ॥ भावार्थ - जिन साधुओंने ध्यानके बलसे निश्चयंचारित्र में