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श्रीप्रवचनसारटोका। होनेसे व सुखी होनेसे अपनेको पाप या पुण्यबंध मान लेना व अपनेको दुःख देनेसे पुण्य व सुख देनेसे पाप मान लेना, रागद्वेष सहित देव व गुरुको यथार्थ देव गुरु मानना आदि अयथार्थ पदा
ढेका स्वरूप अल्पज्ञानियोंके रचे हुए ग्रंथोंमें पाया जाता है। जिसको परीक्षा करके भलीभांति श्री विद्यानंदी आचार्यने आप्त परीक्षा तथा अष्टसहस्री ग्रन्थोमें दिखला दिया है। जो सर्वज्ञ और अल्पज्ञ कथनोंकी परीक्षा करना चाहें उनको इन ग्रन्थोंका मनन कर सत्यका निर्णय करलेना चाहिये। जव पदार्थका स्वरूप ही ठीक नहीं है तब जो कोई इनका श्रद्धान करेगा उसको अपने शुद्ध बभावकी प्राप्ति रूप मोक्षका लाभ किस तरह होसक्ता है ? अर्थात् नहीं होसकता । तब क्या उन अयथार्थ पदार्थोको माननेवाले प्राणियोंका सर्वथा ही बुरा होगा ?
इसप्रश्नके उत्तरमें आचार्यने दिखाया है कि मोक्षमार्ग न पानेसे तो सर्वथा ही बुरा होगा, क्योंकि उनको मोक्षमार्ग मिला ही नहीं। वे मोक्षके विपरीत मार्गपर चल रहे हैं इसलिये जब तक वे इस असत्य मार्गका त्याग न करेंगे तबतक मोक्षमार्ग न पाकर मोक्षमार्गपर आरूढ़ न हो मोक्ष कभी भी प्राप्त नहीं कर सके । तथापि कर्म वन्धके नियमानुसार वे अयथार्थ देव, गुरुके सेवक व अयथार्थ शास्त्रके पठन पाठन करनेवाले व अयथार्थ ध्यान, जप, तप, साधनेवाले व अयथार्थ दान आदि करनेवाले प्राणी अपनी २ कषायोंके अनुसार पुण्य पापका बन्ध करेंगे । मिथ्यात्व व अज्ञानके कारण वे धातिया कर्मरूप ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय व अंतराय इन चार पाप प्र¢तियोंका तो बहुत गाढ़ बन्ध करेंगे; तथापि